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गुरुवार, 30 जनवरी 2014

जिस्म की परछाईं भी लुप्त हो गयी

कुछ चली ऐसी बयार चिंगारियों की
जिस्म की परछाईं भी लुप्त हो गयी

अब परछाइयों की परछाइयाँ ढूँढती हूँ

पुराने मकाँ में इक आशियाना ढूँढती हूँ

देवदार शीशम चैल की लकडियों में गुम

वजूद के टूटे - बिखरे निशाँ ढूँढती हूँ

वो जो तल्खी से बंद किये थे किवाड

उन किवाडों के बीच इक दरार ढूँढती हूँ

झिर्रियों के पार रौशनी के दरीचों में

मैं उम्र की सफ़ेदी के चराग ढूँढती हूँ

इस अंधेरी शाम की सुर्खियों के बीच

होम हुये ख्वाबों के कलाम ढूँढती हूँ

जाने क्यूँ सुलगती नहीं सूखी हुई लकडी

जबकि रोज उसमें घी की आहूति बीजती हूँ

बुधवार, 22 जनवरी 2014

असभ्य हूँ मैं !!!

जंगल 
जहाँ सब तरह के जानवर 
सबका एक स्थान 
अपनी एक पहचान 
अपना एक मुकाम 
सबके अपने अपने चेहरे 
अपनी अपनी वर्जनायें 
फिर संघर्षबाजी हो या गुटबाजी 
चेहरों के समीकरण बदलने लाज़िमी हैं 
दोस्त दुश्मन बनने लाज़िमी हैं 
अहंकार के बिच्छू जब ज़हर उगलते हैं 
दंश तो तड़पायेगा ही 
और ऐसे में यदि 
कोई चेहरा मोहरा बन जाए 
वक्त की मुखर आवाज़ बन जाए 
कोई चेहरा समझौता ना कर पाये 
दोषी ठहराया जाना लाज़िमी है 
सारी अवगुंठाओं की गाज़ 
उसी पर गिरनी लाज़िमी है 
जिसने विद्रोह किया 
उसका कुचलना लाज़िमी है 
क्योंकि असहयोग आंदोलन का 
प्रणेता जो बन जाता है 
फिर जंगल को भला 
कब दूसरा राजा  सुहाता है 
इसलिए जरूरी हो जाता है पासे पलटना 
अपनी मान्यताओं पर खरा उतरने को 
असहयोगी सहयोगी बन
बनाते हैं नव कीर्तिमान 
बदलने को हवा का रुख 
और साबित करने को 
खुद को पाक साफ 
मुखौटे लगा सिद्ध कर देते हैं 
ये जो उभरा है नया चेहरा 
हमारे जंगल का नहीं है 
या तो हमारे जैसा बन जा 
जो हम कहते हैं वैसा करता जा 
नहीं तो आता है हमें सिद्ध करना स्वयं को 
निर्दोष और तुम्हें दोषी 
और इस फरमान के साथ 
जंगल में असहयोग आंदोलन का 
प्रणेता हो जाता है धराशायी 
जानकार ये सत्य 
क्योंकि 
जंगलों के क़ानून से अवगत नहीं हूँ 
इसलिए 
उसूलों आदर्शों पर चलने वाला 
असभ्य हूँ मैं !!!

शनिवार, 18 जनवरी 2014

भूख भूख भूख ...........5

और एक खास भूख और होती है
जो अपना सर्वस्व खो देती है
फिर भी ना मिलकर मिलती है
प्रेम की भूख 
शाश्वत प्रेम की चाहना 

आदिम युग से अन्तिम युग तक भटकती 
जो मिटकर भी ना मिटती 
जिसकी चाह में 
सृष्टि भी रंग बदलती है
पेड पौधे , पक्षी, प्राणी, मानव, दानव
सभी भटकते दिखते हैं 
निस्वार्थ प्रेम की भूख 
ऐसा आन्दोलित करती है
जो अच्छा बुरा ना कुछ देखती है
बस पाने की चाह में 
वो कर गुजरती है 
कि इतिहास भर जाता है
नाम अमर हो जाता है
मगर प्रेमी जोडा ना मिल पाता है

फिर चाहे मीरा हो या राधा 
लैला हो या हीर 
रैदास हो या तुलसीदास 
कबीर हो या सूरदास 
प्रेम की भूख तो सबसे भयावह होती है 

जो दीदार होने पर और बढती है 
और शांत होकर भी अशांत कर जाती है
कभी विरह में भी सुकून देती है 
और अशांति में शांति का दान कर जाती है 
अजब प्रेम की भूख के गणित होते हैं
जिसके ना कोई समीकरण होते हैं 


और भी ना जाने 
कितने रूपों में समायी है ये भूख
जो शांत होकर भी शांत नहीं होती
क्योंकि
सबके लिये अलग अलग कारण होते हैं भूख के
और सबके लिये अलग अलग अर्थ होते हैं भूख के

जायज नाजायज के पलडे से परे 
भूख का अपना गणित होता है 
जो सारे समीकरणों को बिगाड देता है
इसलिये तब तक भूख के खूँटे से बँधी गाय उम्र भर रंभाती रहेगी 
जब तक कि निज स्वार्थ से ऊपर उठकर 
नैतिक आचरणों और संस्कारों की संस्कृति 
एक नयी सभ्यता को ना जन्म देगी 

गुरुवार, 16 जनवरी 2014

बालार्क की दसवी किरण

बालार्क की दसवी किरण डॉक्टर कौशलेन्द्र मिश्र

डॉक्टर कौशलेन्द्र मिश्र एक उद्देश्य के साथ लेखन करते हैं।  साहित्य के माध्यम से अपने आदर्शों , संस्कृति और मूल्यों को बचाने के लिए प्रयासरत रहना और इसी का दर्शन उनकी कविताओं   में होता है जब "एक ही दृश्य " कविता में ह्रास होते जीवन मूल्यों को देखते हैं कवि मन पीड़ा से भर उठता है जब देखता है आज के युग की विडम्बना कि कैसे शैतान काबिज़ हो रहा है , उसी की जय जयकार हो रही है हर तरफ और दूसरी तरफ इंसानियत किसी हारे जुआरी सी मूँह छुपाये किसी कोने में दुबकी सिसक रही है उस क्षण कवि मन ईश्वर से प्रश्न कर ही उठता है कि आखिर ऐसा भेदभाव क्यों कुछ इस तरह :

"कभी मिलेगा ईश्वर / तो पूछूंगा जरूर/ मीठे कुएं इतने कम क्यों हैं / और सागर इतने फैले हुए क्यों हैं "

"विश्व मानचित्र में " यही पीड़ा आगे आकार लेती है जब कवि उद्द्वेलित होता है ये सोचकर कि जिन मूल्यों से उसके देश की पहचान थी आज वो कहाँ खो गए हैं कि अगर कोई दूर खड़ा देखे तो उसे वो भारत दिखेगा ही नहीं जहाँ राम , सीता , लक्ष्मण  कृष्ण जैसे चरित्रों ने जन्म लिया था और एक आदर्श स्थापित किया था क्योंकि आज तो चारों तरफ नैतिक मूल्यों का सिर्फ ह्रास ही हो रहा है, कहीं कोई मर्यादा नहीं रही , चरों तरफ फैली अराजकता ही दया , प्रेम और करुणा को लील चुकी है , ये कैसा परिदृश्य है , दुखी होने के साथ चकित है कवि :

"आर्यों के देश में / आर्य ही मिलता नहीं / आर्यत्व का अब कोई / अनुसन्धान करता नहीं / सीता के हरण पर / उद्वेलन होता नहीं / रावणों की भीड़ से निकलकर / कोई एक / लक्ष्मण को निति का / उपदेश अब देता नहीं। / मूल्य कहाँ होंगे शेष?"

"नाली का कीड़ा " के माध्यम से स्वदेश से पलायन करती प्रतिभाओं और विदेश के  कटाक्ष किया है और देशप्रेम की भावना को भी चंद  शब्दों में ही भर दिया है साथ ही एक सन्देश भी दिया है कि इंसान चाहे तो अपने देश में रहकर भी उत्थान और प्रेरणा की अलख जगा सकता है। 

"पहरुए" अर्थात पहरेदार………आज की जीवन शैली का आने वाली पीढ़ी पर पड़ते हुए असर को इंगित करती है कि आज हम चकाचौंध में खो गए हैं और उसी में आने वाली पीढ़ी को डुबो रहे हैं जबकि आने वाली पीढ़ी का दोष नहीं , कहीं न कहीं हमारी ही पहरेदारी में कमी है , हम ही नहीं दिखा पा रहे सही राहें क्योंकि आज के बच्चे ही कल का भविष्य हैं और जो और जैसे संस्कार हैम उन्हें देंगे वैसे ही देश का निर्माण होगा , वैसे ही चरित्र बनेगे और वो वक्त आने से पहले हमें जागना होगा और अपने कर्त्वयों को समझना होगा :

"सहिष्णुता को भगाकर / उद्दंडता आयी है / संयम को भगाकर / उच्छृखलता आयी है / घरवाली गयी है बहार / घर में कामवाली आयी है /बच्चे घर से भागने लगे है / शहर शहर / गली गली भटकने लगे हैं / बच्चे स्वयं को बच्चा नहीं जानते / सामाजिक नियमों को अच्छा नहीं मानते "

कुल मिलाकर कवि व्यथित है आज गिरते जीवन मूल्यों से , प्रभाव खोती संस्कृति से जो किसी भी देश की पहचान होते हैं और दोबारा उन्ही को स्थापित करने का स्वप्न देखते हैं अपने लेखन के माध्यम से बस यही तो है लेखन का औचित्य और सार्थकता जो किसी उद्देश्य के तहत किया जाए , जो समाज को सही दिशा दे सके और आने वाली पीढ़ी का सही मार्गदर्शन कर सके और उसमे कवि सक्षम है।  कवि की सूक्ष्म दृष्टि इसी तरह सभी बुराइयों पर पड़ती रहे और वो इसी तरह जागरूकता की अलख जगाता रहे इसी कामना के साथ कवि को उत्तम व् प्रेरक लेखन के लिए बधाई देती हूँ। 

मिलती हूँ अगले कवि के साथ जल्दी ही………… 

मंगलवार, 14 जनवरी 2014

मानसिक विक्षिप्त

ज़िन्दगी भर की अपनो की दी हुयी
कुंठा, पीडा ,बेचैनी, घुटन , तिरस्कार
उपेक्षा, दर्द , मजबूरी , विषमता
अकेलेपन की त्रासदी का जब जमावडा होता है
तब एक जुनूनी तेजाब उबलता है
जो खदक कर बाहर आने को आतुर होता है
दिल दिमाग की गुत्थमगुत्था में जब भी
कुछ बूँदें छलकती हैं
वो कविता नहीं होतीं
कुछ कह ना सकने
कुछ कर ना सकने की विवशता ही
वहाँ अवसाद रूप में बहती है
जिसे तुम कविता कहते हो
या कविता समझते हो
वो तो वास्तव में
अवसाद रूप में बहती विक्षिप्तता के कगार पर खडी
वो आकृति होती है जो गर
शब्दों के सहारे अवसाद का
पतनाला बन ना बहती तो
मानसिक विक्षिप्त करार दी जाती
मगर उसकी पीडा ना कभी समझी जाती
कि
अपनों के बीच , अपनेपन को तरसते
हजारों सपनों के ज़मींदोज़ होने पर
जिन सभ्यताओं के नामोनिशान भी नहीं रहते
उन्हें कितना खोद लो
कितने अन्वेषण कर लो
कितना ही पत्थरों की
मौन भाषा को लिपिबद्ध कर लो
उस वास्तविक अवस्था की तो
परछाईं भी ना हाथ में आती है
और ज़िन्दगी ना जाने कब लिहाफ़ बदल जाती है
और मानसिक विक्षिप्त सी कवितायें ही यहाँ आकार पाती हैं
अब वो कविता होती है या मानसिक विक्षिप्त का अवसाद
उन सुलगते रेशमी तागों कौन छूकर देखे और अपने हाथ जलाये
आज तो दो लोटे वाहवाही के जल का उँडेलना ही काफ़ी है अभिषेक के लिये ………

शनिवार, 11 जनवरी 2014

भूख भूख भूख …4

नेता की भूख 
पद के लालच में
नहीं देख पाती 
बेबस जनता की तकलीफ़ें 
जनता का रुदन
उसे चाहिये होता है एक उच्च पद
जहाँ वो सारे कुकृत्य करके भी बच जाये
स्वंय को पाक साफ़ सिद्ध कर सके 
क्योंकि जानता है वो
कीडे मकौडों सी जनता का गणित
भूल जायेगी उसके हर कुकृत्य को
समय हर घाव भर देता है की तर्ज़ पर
और फिर पद यूँ ही नहीं मिला करते
जोड तोड की नीति में 
क्या क्या कुर्बानी नहीं दी होती
तब जाकर एक प्रतिष्ठित पद की भूख शांत होती है
और उसे कायम रखने के लिये 
कितने पापड बेलने पडते हैं
नेता जी अच्छे से जानते हैं
इसलिये भूख तो आखिर भूख है
हर संभव उपायों से शांत करने को प्रयासरत रहना आसान नहीं होता
फिर चाहे उच्छिष्ट के रूप में 
कुछ भरम ही क्यों ना कायम करना पडे 
जनता के बीच …अगले चुनाव से पहले
भूख की जडों को सींचने के लिये 
हथियारबंद होकर 
डर का साम्राज्य पैदा करके 
या फिर शुभचिन्तक बनकर 
रोज नये मुखौटे लगाकर
जरूरी है हर दांवपेंच की जानकारी का होना 

क्रमश : ……………

सोमवार, 6 जनवरी 2014

बालार्क की नवीं किरण


प्रतिभा कटियार एक जाना पहचाना नाम है जो किसी परिचय का मोहताज नहीं।  रोने की कोई वजह नहीं होती सुना तो होगा न मगर जो आंसुओं का समंदर बहाकर रोया जाए तो वो रोना भी कोई रोना है क्या ? एक ऐसा प्रश्न उठाती कविता है "रोने के लिए आत्मा को निचोड़ना पड़ता है " कितना गहरे उतरी हैं कवयित्री ये तो इस कविता को पढ़कर ही समझा जा सकता है।  आँख से आंसू टपके और रो लिए रोना इसे नहीं कहते बल्कि जब रोने का तुम्हें सलीका आ जाये वो है असल रोना , वो है आत्मा का निचुड़ना जहाँ उदासियों की टंकारें तो गूंजती हों मगर देखने वाले को मुस्कराहट का नमक लगे……… एक सलीकेदार दुनिया का निर्माण करती कवयित्री जीने का ढंग सिखा जाती हैं।  


"रोना वो नहीं जो आँख से टपक जाता है /रोना वो है जो सांस सांस जज़्ब होता है "

"उम्र सोलह की " एक ऐसा पायदान जो आता है तो जाने कितने गुलाबी पंखों को समेटे आता है और उड़ान का पंछी बिना पंखों के परवाज़ भरने  लगता है मगर एक स्त्री जो सारे संसार की धुरी बन एक उम्र गुजार देती है वो भी उम्र के आखिरी पड़ाव तक भी सोलह की उम्र सी होती है , उसमे भी कुछ गुलज़ार उमंगें आसमान चढ़ती हैं जिन्हें उसने बेशक कुछ वक्त के लिए ताक पर रख दिया होता है मगर असल में तो सोलह की उम्र सा जज्बा तो उसमे ता - उम्र रहता है सांसों सा , धड़कन सा जिस पर कभी कोई राग गाया ही नहीं गया , कोई सरगम बनायीं ही नहीं गयी वर्ना एक स्त्री सिर्फ स्त्री ही नहीं होती , एक षोडशी की तरंगें उमंगें गीत बन उसके लहू में बहती हैं सिर्फ एक हसरत में कोई तो हो जो सोया है सावन उसे जगा दे जो खोया है सावन उसे वापस ला दे : 

एक दिन में बरसों का सफ़र तय करते हुए / वो भूल ही चुकी है कि / ज़िन्दगी की दीवार पर लगे कैलेण्डर को बदले / ना जाने कितने बरस हुए / कौन लगा पायेगा पाँव की बिवाइयों की उम्र का अंदाजा / और बता पायेगा सही उम्र , उस स्त्री की ?

"बेसलीका ही रहे तुम " एक प्रेयसी के भावों का जीवंत चित्रण है जो प्रेमी को जाने कितने बहानों से याद भी कर रही है और उसके विरह में जल भी रही है।  प्रेमी का हवा के झोंके सा आना और अचानक चले जाना फिर वो चाहे किसी भी वजह से हो प्रेमिका ढूंढ ही लेती है वजहें उसके आने और जाने के बीच के संसार में जीने की।  उसकी छोटी छोटी चीजें हों या उसका होना हो सबमे प्रेमी का दर्शन ही प्रेमिका के प्रेम की पराकाष्ठा है तभी तो कितनी शिद्दत से कह उठती है :

"आज सफाई करते हुए पाया मैंने कि / तुम तो अपना होना भी यहीं भूल गए हो "

वैसे इस कविता का एक और पहलू हो सकता है जब कोई अपने जीवनसाथी को खो दे हमेशा के लिये जो उसे छोड दूसरी दुनिया में चला जाये तब भी ऐसे ही भावों का उद्धृत होना लाज़िमी है मगर नज़रिया चाहे जो हो मगर एक प्रेयसी/पत्नी के भाव तो इसी तरह उमडेंगे उससे इंकार नहीं किया जा सकता ।


आज स्त्री जान चुकी है खुद को शायद तभी नहीं पड़ती अब झूठे प्रलोभनों में तभी तो जरूरत नहीं उसे किसी साज श्रृंगार की , किसी प्रशंसा की क्योंकि अपने होने के औचित्य को  समझ चुकी है , जान चुकी है कि एक कर्मठ स्त्री का "सौदर्य "उसका रूप रंग नहीं उसका कर्म होता है , उसकी सांवली त्वचा नहीं बल्कि उसका स्वाभिमान होता है जिसे दर्प से उसका चेहरा दमकता है तभी तो प्रश्न करती है आज के पुरुष समाज से कि मैंने तोड़ दिए तुम्हारे बनाये सभी घेरे , बताओ , अब कौन से नए प्रलोभन दोगे  , कौन से नए षड्यंत्र रचोगे मुझे लुभाने के , अपना गुलाम बनाने के ।

"उनके लहू का रंग नीला है " जैसे एक सभ्यता खोज रही हो अपने निशान , जैसे सारे शोध यहाँ आकर भस्मीभूत हो गए हों। …… कुछ ऐसे भावों को संजोया है कवयित्री ने।  प्रेम मानव जीवन की प्रथम आवश्यकता है जिसके बिना जीवन सम्भव ही नहीं और जब वो ही प्रेम लहूलुहान होता है , जब वो ही प्रेम सूली पर चढ़ता है , जब उसी प्रेम के होने पर बंदिशों के घेरे बंध जाते हैं तब दर्द की अंगड़ाइयां बहते लहू को मानो नीला कर देती हैं , मानो कहती हों आओ करो हम पर शोध , करो हमारा अन्वेषण , करो हमारे पर योगिक क्रियाएं और बताओ तो ज़रा क्या ज़िंदा है ……इंसान या प्रेम ? आज के साइंस ज़दा मानव को चुनौती देती कवयित्री प्रेम को एक ऐसा शोध का विषय बता रही हैं जो युगों से अकाट्य सत्य की तरह हमारे बीच है , जिससे सभी बीमार हैं मगर कोई कह नहीं सकता देखकर बीमार की शक्ल कि हाल अच्छा नहीं है यही है प्रेम का होना जो होने पर भी अदृश्यता के सभी प्रतिमानो को तोड़ देता है और एक अपना ही अलग व्यास का निर्माण करता है :

उदासियाँ किसी टेस्ट में नहीं आतीं / झूठी मुस्कुराहटें जीत जाती हैं हर बार / और रिपोर्ट सही ही आती है / जबकि सही कुछ बचा ही नहीं "

स्त्री के मनोभावों का चित्रण करने में कवयित्री पूर्णतः सक्षम है साथ ही सोच को नए आयाम देती हैं , वहाँ जहाँ कुछ नहीं है उसमे से भी कुछ को पकड़ लेती हैं और एक चित्र कायम करने में सक्षम होती हैं यही होती है एक कवि की दृष्टि, सोच और परिपक्वता जो उसे नहीं होने में से भी कुछ होने को ढूंढने में मदद करती है और उसको एक नया मुकाम देती है।  कवयित्री को सटीक और हृदयस्पर्शी लेखन के लिए बधाई देती हूँ।  

फिर मिलती हूँ अगले कवि  के साथ जल्दी ही : ………… 

शनिवार, 4 जनवरी 2014

भूख भूख भूख ........3

भूख आगे बढने की 
कभी देख ही नहीं पाती
कौन मरा कौन जीया
किसकी लाश पर पैर रखकर 
किसने कौन सा खिताब पाया 
भूख तो आखिर भूख है 
शांत होने के लिये 
कहीं ना कहीं कोई तो अलाव जलाना होगा 
रोटियाँ बिना आग के नहीं पका करतीं 
फिर चाहे सारे नियमों , नीतियों को ही 
नेस्तनाबूद क्यों ना करना पडे 
क्योंकि
"जो जीता वो सिकन्दर " कहावत का मोल भी तो चुकाना है


प्रशंसा, सम्मान , उपलब्धियों की भूख भी 
दलालों के शोषण का शिकार हो जाती है
मान सम्मान की भूख कब
नैतिकता के सिंहासन से उतार देती है
और कब निज स्वार्थ के वशीभूत 
सारी बातों को दरकिनार कर 
सिर्फ़ स्वंय को स्थापित करने की चाह जड पकडती है
पता ही नहीं चलता
और शुरु हो जाता है वहीं से शोषण का सिलसिला ……प्रतिभाओं के 
बस प्रतिभायें ही मजदूरी करती हैं 
और अपना पेट भरती हैं
और दूसरी ओर अवांछित तत्व 
कभी पैसे के बल पर 
तो कभी पद के बल पर 
अपनी तुच्छ भूख को शांत करते
पेज थ्री पर छपते हैं 
क्योंकि
भूख तो आखिर भूख होती है
जरूरत है तो उन उपायों की 
जो उसे शांत कर सकें
फिर चाहे उसके लिये 
खुद की प्रतिष्ठा ही क्यों ना गिरवीं रखनी पडे 

क्रमश : ………

बुधवार, 1 जनवरी 2014

अर्ध रात्रि की टंकार

अर्ध रात्रि की टंकार 
और  
दोनो कांटो के मिलन के साथ 
मेरा हर लम्हा मानो 
एक युग में  बदल गया 
गुजरे हुये ज़माने में तब्दील हो गया 


अर्ध रात्रि की टंकार 
और  
दोनो कांटो के मिलन के साथ 
मेरे जीवन में मानो 
नव सूर्योदय हुआ 
रूह का पोर पोर खिल गया 

अर्ध रात्रि की टंकार 
और  
दोनो कांटो के मिलन के साथ 
कोई अंतरघोष हुआ मानो 
अवचेतन में चेतन दर्शन हुआ 
खुदी से खुदा मिल गया 


और आखिर में इन शुभकामनाओं के साथ


रोंप खुशियों की कोंपलें
सदभावना की भरें उजास
शुभकामनाओं से कर आगाज़
नववर्ष 2014 में भरें मिठास

नववर्ष 2014 आपके और आपके परिवार के लिये मंगलमय हो ,सुखकारी हो , आल्हादकारी हो