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रविवार, 30 दिसंबर 2012

क्या संभव है सुदृढ़ इलाज ??????????


मेरी आत्मा
लाइलाज बीमारी से जकडी 
विवश खडी है इंसानियत के मुहाने पर
मुझे भी कुछ पल सुकून के जीने दो
लगा गुहार रही है इस नपुंसक सिस्टम से

मेरी सडी गली कोशिकाओं को काट फ़ेंको
ये बढता मवाद कहीं सारे शरी्र को ही 
ना नेस्तनाबूद कर दे 
उससे पहले 
उस कैंसरग्रस्त अंग को काट फ़ेंकना ही समझदारी होगी

क्या आत्मा मुक्त हो सकेगी बीमारी से 
इस प्रश्न के चक्रव्यूह मे घिरी 
निरीह आँखों से देख रही है 
लोकतंत्र की ओर
जनतंत्र की ओर
मानसतंत्र की ओर

क्या संभव है सुदृढ़ इलाज ??????????

बुधवार, 26 दिसंबर 2012

क्योंकि ………सब ठीक है

चलो क्रिसमस मनायें
नया साल मनायें
क्योंकि ………सब ठीक है
क्या हुआ जो किसी की दुनिया मिट गयी ………मगर मैं बच गया
क्या हुआ जो किसी का बलात्कार हुआ …………मगर मैं बच गया
क्या हुआ जो आन्दोलन बेअसर हुआ……………मेरा घर तो बच गया
क्या हुआ जो मै उनके साथ ना लडा ……………क्योंकि ये मेरी लडाई नहीं
क्या हुआ जो समाज बिगड गया ………………मगर मेरा तो कुछ ना बिगडा
क्या हुआ जो समयानुकूल ना कोई कदम उठा …………मैं तो घर पहुँच गया
क्या हुआ जो दोषारोपण हुआ …………मुझ पर तो ना इल्ज़ाम लगा
क्या हुआ जो व्यवस्था दूषित हुयी …………मगर मेरी इज़्ज़त तो बच गयी
जब तक मेरी ऐसी सोच रहेगी
मैं कहता रहूँगा …………सब ठीक है
और मनाता रहूँग़ा क्रिसमस नया साल उसी उल्लास के साथ
क्योंकि …………ऐसा कुछ ना मेरे साथ घटित हुआ
जब तक ये सोच ना बदलेगी
जब तक दूजे का दर्द ना अपना लगेगा
तब तक हर खास-ओ-आम यही कहेगा
सब ठीक है …………सब ठीक है

सोमवार, 24 दिसंबर 2012

और कैसे होगा लोकतंत्र का बलात्कार ?


अब देखिये इस चित्र को और बताइये ये किस बर्बरता से कम है……कल को कहीं फिर से जलियाँवाला बाग कांड भी हो जाये तो कोई हैरानगी नहीं होगी







इसे क्या कहेंगे आप ?
पुलिस की बर्बरता या सरकार का फ़रमान या अनदेखी या लोकतंत्र का बलात्कार राजशाही द्वारा …………जहाँ न्याय की माँग करने पर पैरों से रौंदा जाता है ………धिक्कार है !!!!!!!!




बर्बरता शब्द भी आज रो उठा
देखा जो हाल इंडिया गेट पर
कैसा देश कैसा लोकतंत्र
ये तो बन गया कठपुतली तंत्र
सुना है कृष्ण ने उद्धार हेतु
किया था भौमासुर का संहार
और किया था मुक्त सोलह हजार को
वो भी तो दानव था ऐसा
जो बलात कन्या अपहृत करता था
उनको कृष्ण ने  न्याय दिया
राजा का धर्म निभा दिया
आज कैसे राजा राज करते हैं
जो बलात्कारियों को ही संरक्षण देते हैं
और विरोध करने वालों पर ही
अत्याचार करते हैं
सुना है जब अधर्म की अति होती है
तभी कोई नयी क्रांति होती है
इस बार जो बीज बोये हैं
फ़सल उगने तक इन्हें सींचना होगा
हौसलों को ना पस्त होने देना होगा
मेरे देश के बच्चों …कल तुम्हारा है
बस ये याद रखना होगा
जो कदम आगे बढे
उन्हें ना पीछे हटने देना होगा
फिर देखें कैसे ना तस्वीर बदलेगी
कैसे ना पर्वत से गंगा निकलेगी
बेशक आज अन्याय की छाती चौडी है
मगर न्याय की डगर से भी ना दूरी है
बस इस बार ना कदम पीछे करना
और इस देश के नपुंसक तंत्र को उखाड देना
बस न्याय मिल जायेगा
हर दामिनी का चेहरा गर्व से दमक जायेगा 


शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

क्योंकि तख्ता पलट यूँ ही नहीं हुआ करते ...........

अब सिर्फ
लिखने के लिए
नहीं लिखना चाहती
थक चुकी हूँ
वो ही शब्दों के उलटफेर से
भावनाओं के टकराव से
मनोभावों का क्या है
रोज बदलते हैं
और एक नयी
परिभाषा गठित करते हैं
मगर लगता है
सब निरर्थक
रसहीन
उद्देश्यहीन सा
कोई कीड़ा रेंग रहा है
अंतस में चिकोटी भर रहा है
जो चाह रहा है
अपनी परिधि से बाहर आना
निकलना चाहता है
नाली के व्यास से बाहर
बनाना चाहता है
एक अलग मकां अपना
जिसमे
सिर्फ शब्दों के अलंकार ना हों
जिसमे सिर्फ
एकरसता ना हो
जिसमे हो एक नया उद्घोष
जिसमे हो एक नया सूर्योदय
अपने प्रभामंडल के साथ
अपनी आभा बिखेरता
और अपने लिए खुद
अपनी धरती चुनता हुआ
जिस पर रख सकूँ मैं अपने पैर
नहीं हो जिसकी जमीन पर कोई फिसलन
हो तो बस एक
आकाश से भी विस्तृत
मेरा अपना आकाश
जिसके हर सफे पर लिखी इबारत मील का पत्थर बन जाये
और मेरी धरा का रंग गुलाबी हो जाये

कोई तो कारण होगा
खामोश मर्तबान में मची इस उथल पुथल का
जरूरी तो नहीं अचार खट्टा ही बने
शायद
अब वक्त आ गया है देग बदलने का ................
यूँ तो धमनियों में लहू बहता ही रहेगा
और जीवन भी चलता रहेगा
मगर
अन्दर बैठी सत्ता ने बगावत कर दी है
क्योंकि तख्ता पलट यूँ ही नहीं हुआ करते ...........

सोमवार, 17 दिसंबर 2012

पपडाए अधरों की बोझिल प्यास

सुनो
कहाँ हो ............?
मेरी सोच के जंगलों में
देखो तो सही
कितने खरपतवार उग आये हैं

कभी तुमने ही तो

इश्क के घंटे बजाये थे
पहाड़ों के दालानों में
सुनो ज़रा
गूंजती है आज भी टंकार
प्रतिध्वनित होकर

श्वांस  की साँय -साँय करती ध्वनि

सौ मील प्रतिघंटा की रफ़्तार से
चलने वाली वेगवती हवाओं को भी
प्रतिस्पर्धा दे रही है ..........

दिशाओं ने भी छोड़ दिया है

चतुष्कोण या अष्ट कोण बनाना
मन की दसों दिशाओं से उठती
हुआं - हुआं  की आवाजें
सियारों की चीखों को भी
शर्मसार कर रही हैं ........

क्या अब तक नहीं पहुंची

मेरी रूह के टूटते तारे की आवाज़ .........तुम तक ?

उफ़ ............सिर्फ एक बार आवाज़ दो

सांस थमने से पहले
जान निकलने से पहले 

धडकनों के रुकने से पहले
(पपडाए अधरों की बोझिल प्यास फ़ना होने से पहले )

ये इश्क के चबूतरों पर बाजरे के दाने हमेशा बिखरते क्यों हैं ............प्रेमियों के चुगने से पहले .........जानां !!

गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

ओ राँझेया ............देख वे तेरी हीर दीवानी होयी !!!

भीगते मौसम की कराहटें
जैसे जिस्म की खाल में
कोई रेशमी बूंटे टाँग रहा हो
तेज़ाब में सुईयाँ डुबा डुबाकर …
देख ना कितनी खूबसूरत
कशीदाकारी हुई है
रोम- रोम पर पड़े फफोलों पर
तेरा नाम ही उभर कर आया है
अब कौन चीरे उन फोड़ों को
जिन पर महबूब का नाम उभरा हो
जीने का मज़ा तो अब आएगा
जब टीस में भी तेरा अक्स नज़र आएगा
मैंने मांग ली है दुआ रब से
ओ खुदा अब ना करना मुझे मेरे यार से जुदा
मोहब्बत में मिलन कैसे भी हुआ करे
बस यार का दीदार हुआ करे
देख ना मेरी मोहब्बत की इन्तेहाँ
सोचती हूँ ..............उन फफोलों पर
तेरे साथ अपना भी नाम अंकित कर दूं
एक बार फिर तेज़ाब में सुइयां डुबाकर
क्या हुआ जो एक बार फिर से
दर्द की बारादरियों से गुजरना पड़ेगा
तेरे नाम के साथ मेरा नाम तो जुड़ जाएगा
और दुनिया कहेगी
तेरे नाम पे शुरू तेरे नाम पे ख़त्म जिसकी कहानी हुयी
ओ राँझेया ............देख वे तेरी हीर दीवानी होयी !!!

सोमवार, 10 दिसंबर 2012

जब इश्क ही मेरा मज़हब बना ………

आह! आज ना जाने क्या हुआ
धडकनों ने आज इक राग गाया है
बस इश्क इश्क इश्क ही फ़रमाया है
जो जुनून बन मेरे दिलो दिमाग पर छाया है
ये कोई असबाब या साया नहीं
बस इश्क का खुमार चढ आया है
इश्क को ही मैने अपना
मज़हब चुना है
तभी तो देखो
बंजारन बन कैसे अलख जगाती हूँ
और इश्क इश्क इश्क ही चिल्लाती हूँ
इश्क अन्दर जब उतरता है
सीसे सा पिघलता है
ना दर्द होता है
ना कोई अहसास होता है
बस मीठा मीठा सा सुरूर होता है
जिसमें तू और मैं हों जरूरी नहीं
क्योंकि
आज इश्क को खुदा बना लिया मैने
देख खुद को सूली पर चढा लिया मैने
जो दर्द उठा हुस्न के सीने में
अश्क इश्क की आँख से बह गये
मुकम्मल मोहब्बत में सराबोर
दो जिस्म इक जान हो गये………
अब बता और क्या तज़वीज़ करूँ
इश्क की और कौन सी माला जपूँ
जहाँ कुछ बचा ही नहीं
सिर्फ़ इश्क ने इश्क को आवाज़ दी
इश्क ही इश्क की दुल्हन बना
इश्क ने ही इश्क का घूँघट पल्टा
और इश्क ही इश्क में डूब गया
अब कौन कहाँ बचा
जिसका कोई सज़दा करे
ओ यारा मेरे……तभी तो
इश्क ही मेरी दीद बना
इश्क ही मेरी प्रीत बना
इश्क का ही मैने घूँट भरा
इश्क ही मेरा खुदा बना
अब और कौन सा नया मज़हब ढूँढूं
जब इश्क ही मेरा मज़हब बना
जब इश्क ही मेरा मज़हब बना ………

शनिवार, 8 दिसंबर 2012

जानते हो ! प्रेम में कुछ शेष नहीं रहता …………

तुमने स्वीकारा अपना प्रेम
और छोड दिया एक प्रश्न
मेरी तरफ़ …मेरी स्वीकार्यता
मेरे जवाब का इंतज़ार
तुम्हारे लिये शेष रहा …………मगर
 
शेष रहा …………क्या?
प्रेम ? उसकी स्वीकार्यता
क्या तभी तक है प्रेम का अस्तित्व
जब तक ना हो जाये स्वीकार्य
सुनो …मैने तो सुना है
स्पन्दनों के तारों पर स्वंय प्रवाहित होता है प्रेम
बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये ………
जानते हो ! प्रेम में कुछ शेष नहीं रहता …………
ना तू्……… ना मैं
बस प्रेम मे तो बस प्रेम ही बचता है मिश्री की डली के स्वाद सा
जिसका कोई आकार नहीं , प्रकार नहीं मगर भासित होता है ………बस यही है मेरे लिये प्रेम

क्या अब भी जरूरत है तुम्हें

स्वीकार्यता के भाव की
क्या अब भी जरूरत है तुम्हें
शेष कहने की…………

क्योंकि

मैने तो सुना है
जहाँ शेष रहता है वहाँ प्रेम पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है
और मैं जानती हूँ
तुम्हें प्रश्नचिन्ह पसन्द नहीं …………(एक आयाम ये भी होता है प्रेम में )

मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

जरूरी तो नहीं देव उठाने की रस्म हमेशा मैं ही निभाऊँ ………

ना जाने किस नींद में सोयी थी
युग बीत चुके ……टूटी ही नहीं
ये कल्पनाओं के तकियों पर
ख्वाहिशों के बिस्तर पर
बेहोशी की नींद आना तो लाज़िमी था
मगर उस दिन हकीकत ने जो
ख्वाबों को आँखों से खीचा
सिर से पल्लू को हटाया
धडधडाती हुयी धरती पर गिर पडी
जब तुमने कहा …………
नहीं है ये तुम्हारा घर, बच्चे और संसार
नहीं है तुम्हारा कोई अधिकार
सिर्फ़ गृहिणी हो

ना स्वच्छंद बनो
बस नून, तेल और रोटी का ही 
हिसाब रखा करो
यही तुम्हारी नियति है
जीती रहो जैसे सब जीया करती हैं
क्या तुम्हारे लिये ही बंधन है
क्या तुम्हारे लिये ही जीवन दुष्कर है
क्या करोगी बाहर निकलकर
क्या करोगी इतिहास रचकर

कौन जानेगा तुम्हें
कौन पहचानेगा तुम्हें
ये सिर्फ़ सब्ज़बाग हैं
मन को बहलाने के ख्यालात हैं 
वापसी यहीं करनी होगी
क्योंकि
किस्मत में तुम्हारी तो फिर भी
सिर्फ़ चूल्हा , चौका और बर्तन हैं
नहीं जानती थी
समर्पण सिर्फ़ किताबी लफ़्ज़ हुआ करता है
प्रेम सिर्फ़ किताबों में ही मिला करता है

और गृहिणी का जीवन तो सिर्फ़
चूल्हे की राख सा हुआ करता है 
कितनी उडान भर ले
कितना खुद को सिद्ध कर ले 
मगर कुछ नज़रों में 
उनकी  उपलब्धियों का 
ना कोई मोल होता है
उनके लिये तो जीवन 
एक आखेट होता है
जहाँ वो ही शिकार होती हैं
तब बहुत विश्लेषण किया
बहुत सोचा तो पाया
यूँ ही थोडे बेसूझ साया हमारे जीवन में लहराया था
हाँ ………देव उठनी एकादशी
मै तो इसी ख्वाब संग जीती रही
मेरे देवता तो कभी सोयेंगे ही नहीं
क्योंकि
इसी दिन तो तुमने मुझे ब्याहा था
पता नहीं
मैं नींद में थी या तुम्हारे मोहपाश में बँधी मैं
देख नही पायी
तुम तो हमेशा अधसोये ही रहे
अपनी चाहतों के लिये जागते
मेरी ख्वाहिशों के लिये सोते
अर्धनिद्रित अवस्था को धारण किये
हमेशा एक मुखौटा लगाये रहे
और मैं
अपनी अल्हड ख्वाहिशों में
तुम्हारी बेरुखी का पैबन्द लगा
जीने का उपक्रम करती
भूल गयी थी एक सच
"सोये देवता भी एक दिन उठा करते हैं …………"




सुनो 

सोचती हूँ 
इस बार मैं सो जाती हूँ ………गहरी नींद में
अपनी चाहतों को परवाज़ देने के लिये 
और जब उठूँ तो 
क्या मिलोगे तुम मुझे इसी मोड पर ठहरे हुये
अपना हाथ मेरी ओर बढाते हुये
और शायद उस वक्त 
मेरा मूड ना हो हाथ पकडने का 
जागने का …………गहन निद्रा से


क्या तब भी देवता उठाने की रस्म परांत के नीचे 
प्रेम का दीया जलाकर 
प्रेम राग गाकर 
मुझे पुकार कर 
कर सकोगे …………सोचना ज़रा इस बार तुम भी 


क्योंकि 
मैने देवता उठाने की रस्म बंद कर दी है
और 
जरूरी तो नहीं देव उठाने की रस्म हमेशा मैं ही निभाऊँ ………

रविवार, 2 दिसंबर 2012

अब प्रश्नों के उत्तर के इंतज़ार में हूँ ............

आज अंतर्जाल ने अपनी उपयोगिता हर क्षेत्र में सिद्ध की है और आज इसी के माध्यम से कहीं ब्लॉग पर तो कहीं फेसबुक पर तो कहीं  ट्विटर पर न जाने कितने लेखक, कवि  , आलोचक एक दूसरे  से जुड़ गए हैं। आज जो अन्जान  रहते थे वो कहाँ कौन सी साहित्यिक गतिविधि हो रही है उसके बारे में एक पल में जान लेते हैं फिर चाहे देश हो या विदेश। क्या छोटा क्या बड़ा , क्या लेखक क्या कवि , क्या स्त्री क्या पुरुष सभी को इस माध्यम ने इस तरह जोड़ लिया है कि  एक छोटा सा परिवार बन गया है .

अंतर्जाल ने जहाँ ये सुविधा मुहैया करायी है उसी के साथ कुछ प्रश्न भी उठ खड़े हुए हैं। जैसा कि  कहा जाता है आज तो हर दूसरा इन्सान खुद को कवि  बताने लगा है बस शब्दों का जोड़ तोड़ किया और बन गए कवि । ऐसी आज विचारधारा बनने  लगी है। मगर इसी के साथ धीरे धीरे उन्ही के लेखन में परिपक्वता आने लगी जब कुछ दोस्तों का टिपण्णी के रूप में प्रोत्साहन मिलने लगा . उनका लेखन जिन्हें कभी नौसिखिया कहते थे वो सराहा जाने लगा और वो ही लेखन अपनी पहचान बनाने लगा यहाँ तक कि  इसी अंतर्जाल से आज उन्ही की रचनायें बिना उन्हें बताये पत्रिकाओं, अखबारों आदि में छपने लगीं। जिससे ये तो सिद्ध होता है कि  प्रतिभाओ की कमी नहीं बस पारखी नज़र की ही जरूरत है। मगर प्रश्न  यही से उठता है कि पारखी  नज़र कौन सी है? उसका उद्देश्य क्या है ?

क्योंकि  देखा जाये तो आज जिस तेजी से कवि , लेखक आदि का जन्म हुआ है उसी तेजी से किताबों  , पत्रिकाओ  आदि के छपने का धंधा भी फलने फूलने लगा है।

अब प्रश्न उठता  है कि  ऐसी पत्रिकाओं की प्रासंगिकता क्या है क्योंकि आज ज्यादातर पत्रिकाओं में लिखा होता है कि  साहित्य सृजन के उद्देश्य से कार्य हो रहा है जिसमे कोई पद वैतनिक नहीं है . प्रश्न  यहीं आकर अड़ता है कि  आज जब बड़े से बड़े प्रकाशन बिना अपना फायदा देखे किसी अंजान  का लेखन चाहे कितना ही सशक्त क्यों न हो उसे छापने  का जोखिम नहीं उठाते ऐसे में कैसे ये पत्रिकाएँ बिना किसी लाभ के लगातार छाप रही हैं , कैसे संपादक, उप संपादक आदि के पद अवैतनिक होते हैं? आखिर कोई कब तक बिना किसी आर्थिक लाभ  के निष्काम रूप से इतनी रचनाओं , कहानियों, आलेखों से माथापच्ची करके उन्हें एक सुन्दर सुगठित रूप दे सकता है क्योंकि ये कोई दो चार घंटे या एक दिन का काम तो है नहीं पूरा समय और परिश्रम  चाहिए तभी संपादन सफल हो पाता  है क्योंकि छोटी छोटी वर्तनी की त्रुटियाँ भी  पत्रिका की उपयोगिता पर प्रश्नचिंह खड़ा कर देती हैं दूसरी बात बिना पैसे के कोई क्यूँ कार्य करेगा क्या उसका घर परिवार नहीं है वो इतना वक्त इसमें बर्बाद क्यों करेगा जब तक उसे कोई आर्थिक लाभ नहीं दिखेगा।

अब आता है दूसरा प्रश्न कि  ये पत्रिकाएँ आज ज्यादातर तो दूसरों का लिखा मंगाकर छापती  हैं ही मगर कितनी ही बार ऐसा होता है कि  लेखक को बिना बताये उसकी कृति छाप देते हैं . चलो छापा  तो
छापा मगर क्या इनका इतना भी नैतिक दायित्व नहीं बनता कि  पत्रिका की एक -एक प्रति उन सभी लेखको को भेजें जिनके लेखन को इन्होने इसमें सम्मिलित किया है। कुछ पत्रिकाएँ  तो फिर भी अपनी उपयोगिता सिद्ध करने के लिए वो बिना कहे ही भेज देते हैं मगर कुछ प्रकाशन आदि तो ऐसे होते हैं जो लेखक से ही कहते हैं कि  वो उसका सदस्य बन जाये फिर उसे पत्रिका भेज दी जाएगी आखिर ये कहाँ तक उचित है कि  तुम खुद तो लाभ उठाओ और  लेखक को पारिश्रमिक देना तो दूर की बात उसकी एक प्रति भी ना उपलब्ध करवाओ बल्कि उसे ही खरीदने के लिए फ़ोर्स करो .

अब सोचने वाली बात ये है कि  आखिर एक लेखक कितनी पत्रिकाओं  का सदस्य बने ? कहाँ कहाँ पैसे भेजे क्योंकि अगर उसका लेखन पसंद आ रहा है तो सभी चाहेंगे कि  वो मेरी भी पत्रिका में सहयोग दे तो ऐसे में वो कितना पैसा इसी में खर्चा करता रहे और हर महीने घर में रद्दी का ढेर लगाता  रहे चाहे उसमे उसकी रचना छपी हो या नहीं मगर पत्रिका तो हर महीने आएगी ही एक बार सदस्य बनने  के बाद और दूसरी बात यदि मना  करता है किसी को सदस्य
बनने से तो उसे कंजूस समझा जाता है या उसे छापना ही बंद कर दिया जाता है या कहा जाता है उसे कि  वो कुछ विज्ञापन आदि उपलब्ध करवा दे ,पत्रिका संकट में है और यदि वो नहीं करवा पाता  तो उसके लेखन आदि में ही दोष निकालना  शुरू करके उसे किनारे कर दिया जाता है मगर एक लेखक की मुश्किलों को कोई नहीं समझना चाहता . कुछ जगहों पर तो तीन से पांच साल की सदस्यता के लिए काफी मोटी  रकम मांगी जाती है और तभी उन्हें विशिष्ट स्थान दिया जायेगा और उन्हें विशिष्ट परिशिष्ट में छपा जाएगा की अनिवार्य शर्त सी होती है . तो ये कहाँ तक उचित है? ये कैसा लेखक का सम्मान है जो उसे खुद ही खरीदना पड़े?

जिस तरह से दायरा बढ़ा  है उसी तरह से प्रकाशन का भी दायरा
बढ़ा  है जो लेखक के लेखन को सिर्फ बाजारवाद की वस्तु बनाने पर तुला है। अब प्रश्न उठता है कि  जब आप कोई कार्य शुरू करते हो तो बिना उसका फायदा देखे तो नहीं करोगे न . हर इन्सान अपना आर्थिक फायदा चाहता है फिर चाहे प्रकाशक हो या लेखक। मगर आज प्रकाशक सबसे पहले यही कहते हैं कि  कोई फायदा नहीं हो रहा, प्रतियाँ बिक ही नहीं  रहीं तो प्रश्न उठता  है कि  जब बिक नहीं रहीं तो छप कैसे रही है? दूसरी बात बिक  नहीं रहीं तो आपके पास तो रद्दी का ढेर इकठ्ठा  हो जाना चाहिए तो ऐसे में क्यों नहीं कुछ प्रतियाँ  रचनाकारों को भेजी जायें निशुल्क ताकि वो अपने जानकारों को पढने को दें और उससे पढने वालों का दायरा बढे औरजो सच्चे साहित्य प्रेमी होंगे और उन्हें लिखा पसंद आएगा तो वो खुद संपर्क करके पत्रिका मंगवाना चाहेंगे तो इससे प्रचार - प्रसार तो होगा ही साथ ही बिक्री भी बढ़ेगी और शायद कहीं कहीं ऐसा होता भी हो मगर ज्यादातर प्रकाशन आदि का एक ही रोना होता है कि  बिकती नहीं है, नुकसान हो रहा है तो प्रश्न उठता है कि  यदि नुकसान हो रहा है तो आप उसे छाप ही क्यों रहे हैं? आखिर कोई कब तक नुक्सान उठा कर छापता  रहेगा? ऐसा साहित्य का साधक तो आज के अर्थमय संसार में मिलना बेहद मुश्किल है और होगा तो कोई विरला ही हर कोई नहीं फिर क्यों नहीं पूरी ईमानदारी से स्वीकारते कि  लाभ होता है मगर हम भावनाओं से खेलना जानते हैं या फिर यही हमारे काम  का तरीका है जो सभी को दिग्भ्रमित करता है .

ये कुछ  ऐसे प्रश्न हैं जिनका हल होना जरूरी है क्योंकि आज अर्थवादी संसार  में लेखन, लेखक सब बिकते हैं सभी जानते  हैं मगर फिर भी एक हद तक ही, सब नहीं खासकर वो जो स्थापित हैं मगर जिन्होंने अभी अभी जन्म लिया है  वहां के लिए तो कम से कम कोई आचार संहिता तो होनी ही चाहिए लेखक और प्रकाशक के बीच  ताकि दोहन की सम्भावना ख़त्म हो जाये . दोनों में से कोई भी पक्ष खुद को ठगा हुआ न महसूस करे बल्कि लेखक को भी लगे कि  उसकी प्रतिभा का सही आकलन हुआ है साथ ही प्रकाशक भी संतुष्ट हो कि  उसने न्याय किया है .

प्रकाशक को ज्यादा नहीं तो कम से कम लेखक से पूछकर उसकी रचनायें छापनी चाहिए और अगर अर्थरूप में ना दे सके तो कम से कम उसकी प्रति तो जरूर उसे भेजनी चाहिए ताकि आपसी तालमेल बना रहे क्योंकि कोई भी प्रकाशक न लाभ न हानि  के सिद्धांत  पर ना तो कार्य करता है और न ही ज्यादा देर जिंदा नहीं रह सकता ये सर्वमान्य सत्य है .

हो सकता है ये सिर्फ मेरी सोच हो मगर जो आज तक देखा ,जाना और पाया उससे तो यही निष्कर्ष निकलता  है कि खुद   को स्थापित करने के लिए दूसरे  का शोषण करने की  बजाय पूरी ईमानदारी से कार्य किया जाए बिना किसी पर दबाव बनाये तो वो ही कार्य कल मील का पत्थर साबित होगा और अपनी उपादेयता सिद्ध करेगा। हो सकता है कुछ प्रकाशक या पत्रिकाएँ मुझसे नाराज हो जायें मगर ये प्रश्न मेरे ख्याल से हर उभरते लेखक के मन में जरूर उठते होंगे जिनका यथोचित उत्तर उन्हें मिलना ही चाहिए और यथोचित उत्तर सिर्फ पारदर्शिता से ही मिल सकता है . देखते हैं कितने प्रकाशक इसका सही उत्तर दे पाते हैं ?

मुझ  अल्प बुद्धि ने जैसा देखा जाना और पाया उसे आपके समक्ष रख दिया अब प्रश्नों के उत्तर के इंतज़ार में हूँ ..............


गुरुवार, 29 नवंबर 2012

गुस्ताखियों को कहो ज़रा

गुस्ताखियों को कहो ज़रा 
मेरे शहर के कोने मे ठहर जायें
रात को घूंघट तो उठाने दो ज़रा

कहीं सुबह की नज़ाकत ना रुसवा हो जाये

एक पर्दानशीं का वादा है
चन्दा भी आज आधा है
लबों पर जो ठिठकी है
वो कमसिनी ज्यादा है
ऐसे मे क्यों ना गुस्ताखी हो जाये
जो सिमटी है शब तेरे आगोश मे
उसे जिलावतन किया जाये
एक तस्वीर जो उभरी थी ख्यालों मे
क्यों ना उसे तस्दीक किया जाये

यूँ ही बातों के पैमानों मे

एक जाम छलकाया जाये

रात की सरगोशी पर

चाँदनी को उतारा जाये
फिर दीदार तेरा किया जाये
कि चाँदनी भी रुसवा हो जाये
ये किस हरम से गुज़री हूँ 
इसी पशोपेश में फँस जाये

पर्दानशीनों की महफ़िल में

बेपर्दा ना कोई शब जाए

गुस्ताखियों को कहो ज़रा 
मेरे शहर के कोने मे ठहर जायें............

सोमवार, 26 नवंबर 2012

बस मूक हूँ .............पीड़ा का दिग्दर्शन करके



मुझमे उबल रहा है एक तेज़ाब
झुलसाना चाह रही हूँ खुद को
खंड- खंड करना चाहा  खुद को
मगर नहीं हो पायी
नहीं ....नहीं छू पायी
एक कण भी तेजाबी जलन की
क्योंकि
आत्मा को उद्वेलित करती तस्वीर
शायद बयां हो भी जाए
मगर जब आत्मा भी झुलस जाए
तब कोई कैसे बयां कर पाए
देखा था कल तुम्हें 

नज़र भर भी नहीं देख पायी तुम्हें
नहीं देख पायी हकीकत
नहीं मिला पायी आँख उससे
और तुमने झेला है वो सब कुछ
हैवानियत की चरम सीमा
शायद और नहीं होती
ये कल जाना
जब तुम्हें देखा
महसूसने की कोशिश में हूँ
नहीं महसूस पा रही
जानती हो क्यों
क्योंकि गुजरी नहीं हूँ उस भयावहता से
नहीं जान सकती उस टीस को
उस दर्द की चरम सीमा को
जब जीवन बोझ बन गया होगा
और दर्द भी शर्मसार हुआ होगा
कहते हैं "चेहरा इन्सान की पहचान होता है "
और यदि उसी पहचान
पर हैवानियत ने तेज़ाब उंडेला हो
और एक एक अंग गल गया हो
मूंह , आँख , नाक , कान
सब रूंध गए हों
न कहना
न सुनना
न बोलना
जीवन की क्षणभंगुरता ने भी
उस पल हार  मान ली हो
नहीं , नहीं , नहीं
कोई नहीं जान सकता
कोई नहीं समझ सकता
उस दुःख की काली रात्री को
जो एक एक पल को
युगों में तब्दील कर रही हो
एक एक सांस
खुद पर बोझ बन रही हो
और जिंदा रहना
एक अभिशाप समझ रही हो
कुछ देर खुद को
गर गूंगा , बहरा और अँधा
सोच भी लूं
तो क्या होगा
कुछ नहीं
नहीं पार पा सकती उस पीड़ा से
नहीं पहुँच सकती पीड़ा की
उस भयावहता के किसी भी छोर तक
जहाँ जिंदा रहना गुनाह बन गया हो
और गुनहगार छूट गया हो
जहाँ हर आती जाती सांस
पोर पोर में लाखों करोड़ों
सर्पदंश भर रही हो
और शरीर से परे
आत्मा भी मुक्त होने को
व्याकुल हो गयी हो
और मुक्ति दूर खड़ी अट्टहास कर रही हो
नहीं ..........शब्दों में बयां हो जाये
वो तो तकलीफ हो ही नहीं सकती
जब रोज खौलते तेज़ाब में
खुद को उबालना पड़ता है
जब रोज नुकीले भालों की
शैया पर खुद को सुलाना पड़ता है
जब रोज अपनी चिता को
खुद आग लगाना पड़ता है
और मरने की भी न जहाँ
इजाज़त मिलती हो
जिंदा रहना अभिशाप लगता हो
जहाँ चर्म , मांस , मज्जा
सब पिघल गया हो
सिर्फ अस्थियों का पिजर ही
सामने खड़ा हो
और वो भी अपनी भयावहता
दर्शाता हो
भट्टी की सुलगती आग में
जिसने युगों प्रवास किया हो
क्योंकि
जिसका एक एक पल
युगों में तब्दील हुआ हो
वहां इतने वर्ष बीते कैसे कह सकते हैं
क्या बयां की जा सकती है
शब्दों के माध्यम से ?
पीड़ा की जीवन्तता
जिससे छुटकारा मिलना
आसान  नहीं दीखता
जो हर कदम पर
एक चुनौती बनी सामने खड़ी दिखती है
क्या वो पीड़ा , वो दर्द
वो तकलीफ
वो एक एक सांस के लिए
खुद से ही लड़ना
मौत को हराकर
उससे दो- दो हाथ करना
इतना आसान है जितना कहना
"जिस पर बीते वो ही जाने "
यूँ ही नहीं कहा गया है
शब्द मरहम तभी तक बन सकते हैं
जहाँ पीड़ा की एक सीमा होती है
अंतहीन पीडाओं के पंखों में तो सिर्फ खौलते तेज़ाब ही होते हैं
जो सिर्फ और सिर्फ
आत्मिक शक्ति और जीवटता के बल पर ही जीते जा सकते हैं
और तुम उसकी मिसाल हो कहकर
या तुम्हें नमन करके
या सहानुभूति प्रदर्शित करके
तुम्हारी पीड़ा को कमतर नहीं आंक सकती
बस मूक हूँ .............पीड़ा का दिग्दर्शन करके


दोस्तों कल कौन बनेगा करोडपति में धनबाद की सोनाली को देखा और जिस पीड़ा से वो गुजरी उसे जाना , उसे देखा तो मन कल से बहुत व्यथित हो गया और सोच में हूँ तब से कैसे उसने इतने साल एक एक पल मौत से लड़कर गुजारा है ?
विकृत मानसिकता ने एक जीवन को कैसे बर्बाद किया ये देखकर मन उद्वेलित हो गया और उसकी पीडा को सोच सोच कर ही दिल कसमसा रहा है क्या थी और क्या हो गयी और कैसे उसने पिछले दस सालों से जीवन को जीया है ……मुझे सिर्फ़ और सिर्फ़ उसकी पीडा ही तडपा रही है जिसे शब्दों में व्यक्त करना नामुमकिन है।

गुरुवार, 22 नवंबर 2012

अम्बर तो श्वेताम्बर ही है

रंगों को नाज़ था अपने होने पर
मगर पता ना था
हर रंग तभी खिलता है
जब महबूब की आँखों में
मोहब्बत का दीया जलता है
वरना तो हर रंग 
सिर्फ एक ही रंग में समाहित होता है
शांति दूत बनकर .........
अम्बर तो श्वेताम्बर ही है 
बस महबूब के रंगों से ही
इन्द्रधनुष खिलता है
और आकाश नीलवर्ण दिखता है ...........मेरी मोहब्बत सा ...है ना !!

सोमवार, 19 नवंबर 2012

"कन्यादान" ............एक सामाजिक कुरीति

"कन्यादान" ............एक सामाजिक कुरीति

 "कन्यादान" सुनने में तो बहुत अच्छा लगता है मगर यदि गौर से देखा जाये तो ये भी एक सामाजिक कुरीति है जिसने स्त्री की दशा को दयनीय  बनाने में अहम् भूमिका निभाई .  आज कन्यादान जैसी  कुरीतियों ने स्त्री को वस्तु बना दिया या कहिये गाय ,बकरी बना दिया जिसे जैसे चाहे प्रयोग किया जा सकता है , जिसे जब तक जरूरत हो प्रयोग करो और उसके बाद चाहो तो दूसरे  को दे दो या फेंक दो उसी तरह का व्यवहार चलन में आ गया जिसके लिए कुछ हद तक हमारे ऐतिहासिक पात्र  भी जिम्मेदार हैं जिन्होंने अपनी बेटी की विदाई के वक्त ये कह दिया कि  ये तुम्हारे घर की दासी है इसे अपने चरणों में जगह देना .........आखिर क्यों ? क्या विवाह दो इंसानों में नहीं होता ? क्या एक खरीदार होता है और दूसरा विक्रेता ? क्या सन्देश दे रहे हैं हमारे ऐतिहासिक पात्र  ? और जो परम्पराएं बड़े घरों से  चलती हैं वो ही समाज में गहरे जडें जमा लेती हैं जिनका  दूरगामी परिणाम बेहद दुष्कर होता है जिसका उदाहरण आज की स्त्री की दुर्दशा  है .

पहले के पात्रों में देखो सीता की विदाई में  यही दृश्य उपस्थित  हुआ तभी तो सीता का प्रयोग एक वस्तु की तरह हुआ . जिसने कदम कदम पर अपने पति का साथ देकर पत्नीधर्म निभाया उसे ही गर्भावस्था में एक धोबी के कहने पर त्यागना क्या उदाहरण पेश करता है समाज के सामने कि  वो एक वस्तु ही है जिसे जैसे चाहे प्रयोग करो और जरूरत न हो तो फेंक दो ,त्याग दो और उसे राजधर्म का नाम दे दो ............क्या वो उनकी प्रजा में नहीं आती थी ? राम को  भगवान की दृष्टि से न देखकर यदि साधारण इन्सान की दृष्टि से देखा जाये तो ये प्रश्न उठना लाजिमी है और देखिये इस कुप्रथा का दुष्परिणाम पांडवों ने भी तो यही किया अपनी पत्नी को वस्तु की तरह प्रयोग किया ,पहले तो माँ के कहने पर आपस में बाँट लिया और उसके बाद  द्युत क्रीडा में दांव पर लगा दिया , ये कहाँ का न्याय हुआ ? उसकी मर्ज़ी का कोई महत्त्व नहीं , उसे जो चाहे जीत ले और जैसे चाहे उपयोग करे , इन्ही कुप्रथाओं ने तो आज के मनुष्य को ये कहने का हक़ दे दिया कि  क्या हुआ अगर मैंने ऐसा किया पहले भी तो ऐसा होता था  .........और वो ही सब आज भी चला आ रहा है . आज भी हम कन्यादान करते हैं और गंगा नहाते हैं ...........आखिर क्यों?

क्या बिगाड़ा है कन्या ने जो उसे दान किया जाए और कौन सा खुदा होता है दामाद जो उसे पूजा जाये ?क्यों उसके पैर छुए जायें ? क्या वो हमसे बड़ा है या खुदा है ? अरे वो भी तो बच्चा ही है जैसे हमारी बेटी वैसे ही उसे भी बेटा माना  जाये तो क्या कुछ फर्क आ जायेगा ?

हम क्यों ये नहीं सोचते कि जैसे हमारे बेटा  है वैसे ही बेटी भी है . दोनों को हमने ही तो जन्म दिया है तो कैसे उनमे भेदभाव कर सकते हैं और कैसे अपनी बेटी को वस्तु के समान दान कर सकते हैं . अगर हम ऐसा करेंगे तो सामने वाले को तो मौका मिल जाता है कि तुम्हारे पिता ने तुम्हें दान किया है न कि विवाह . विवाह में तो बराबरी होती है दोनों पक्षों की .

अब सोचने वाली बात है जैसे हमारे लिए बेटी वैसे ही तो दामाद होना चाहिए और जिस घर वो जाये उनके लिए बहू  का भी वो ही स्थान होना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं होता . दामाद को तो भगवान बना देते हैं और बहू को दासी ..........आखिर क्यों नहीं उसे भी उसी तरह का सम्मान दिया जाता अगर बराबरी का रिश्ता है तो ? अगर दामाद पूज्य है तो बहू को भी पूज्य माना जाये और अगर ऐसा नहीं है तो उन दोनों से  ही अपने बच्चों की तरह ही व्यवहार  किया जाये न कि  उन्हें पूजा जाये और अपने घर परिवार में बराबर का सम्मान दिया जाये तो क्या इससे समाज में कोई अंतर आ जायेगा या रिश्ते में अंतर आ जायेगा ? ऐसा कुछ नहीं होगा . होगा तो सिर्फ इतना कि  दोनों परिवारों में , उनमे रहने वालों की सोच में एक दूसरे  के लिए मान सम्मान पैदा होगा जिससे एक स्वस्थ समाज का निर्माण होगा और यदि हम पुरानी  परिपाटियों पर ही चलते रहे तो हमारी बेटियां यूँ ही कुचली मसली जाएँगी या जला दी जाएँगी मगर वो सम्मान नहीं पाएंगी जिसकी वो हक़दार हैं .

कभी उन्हें सामान्य इन्सान नहीं माना गया . या तो देवी बनाकर पूजा गया वो भी सिर्फ नौ दिन और या फिर दुत्कारा गया मगर कभी आम इन्सान की तरह नहीं देखा गया . एक जानकार कहते हैं मैं बेटियों से झूठे बर्तन नहीं उठवाता दूसरी तरफ बेटे बेटी को बराबर मानता हूँ तो ये कैसी बराबरी हुई पूछने पर कहने लगे अरे मर्यादा भी तो कोई चीज होती है और बेटी तो बेटी होती है . जब हमारे पढ़े लिखे समाज की ऐसी सोच होगी तो कैसे उसमे सुधार  संभव है जहाँ एक तरफ बराबरी की बात हो और दूसरी तरफ उसे देवी बना दो। बराबरी भी देनी है तो हर स्तर पर देनी चाहिए न की सिर्फ कथनी में बल्कि  करनी में भी .

हमें इसी जड़ता को बदलना है और इसे बदलने के लिए पहल तो हमें अपने घर से , अपनी बेटियों के जीवन से ही करनी होगी तभी समाज और देश में उनकी दशा में सुधार आएगा बेशक ये प्रथाएँ बदलने में वक्त लगे मगर फिर भी आज का समझदार युवा तो कम से कम इस बात को समझेगा और उसे अपने जीवन में स्थान देगा और शादी से पहले यदि ये कहेगा कि मैं कन्यादान जैसी रस्म का बहिष्कार करता हूँ/करती हूँ तो भी इस दिशा में ये एक क्रांतिकारी व आशान्वित कदम होगा .


आज क्या होता है कि कुछ सामाजिक संगठन गरीब कन्याओं के विवाह के नाम पर "कन्यादान" का लालच देते हैं और कन्यादान को मोहरे की तरह प्रयोग करते हैं जो कि  किसी भी तरह उचित नहीं है . यदि गरीब कन्याओं का विवाह ही कराना है तो उसे कन्यादान का नाम क्यों दिया जाए और उनकी भावनाओं से क्यों खेला जाये . करना क्या है सिर्फ इतना ही कन्यादान शब्द और इस रीती का प्रयोग बंद किया जाये बाकि सारे कार्य किये जायें तो इससे गरीब कन्याओं के विवाह में या उनके लिए सहयोग  देने वालों में तो फर्क नहीं आएगा और साथ ही समाज में भी स्वस्थ सन्देश जायेगा ऊंचे तबसे से लेकर निचले तबके तक कि  कन्या दान की वस्तु नहीं है . वो भी एक जीती जागती इंसान है और उसे भी समाज में बराबरी से रहने का हक़ है और उसे भी समाज में एक इन्सान की तरह स्थान मिले .

अब ये हम पर है कि हम अपनी बेटियों को क्या देना चाहते हैं . बेशक किसी समाजसुधारक का ध्यान आज तक इस तरफ नहीं गया मगर कन्यादान भी किसी कुरीति से कम नहीं जिसने समाज में स्त्री के दर्जे को दोयम बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी . यदि नयी पीढ़ी और हम सब मिलकर ऐसी कुरीतियों का प्रतिकार करें और फिर चाहे बेटे की शादी हो या बेटी की इस कुप्रथा का बहिष्कार करें तो जरूर समाज की सोच में बदलाव आएगा और ऐसी कुप्रथाएं जड़ से समाप्त हो जाएँगी और बेटियों को उनका सम्मान व उचित स्थान मिल जायेगा।



अंत में एक बार फिर से यही कहूँगी………



कन्यादान या अभिशाप


दान करने के नाम पर
रहन रखने की
ये अजब रस्म देखी
बेटी ना हुई
कोई जमीन हुई
जिस पर जो चाहे 
जैसे चाहे हल चलाये
या मकान बनाए
या कूड़े का ढेर लगाये
मगर वो सिर्फ 
बेटी होने की कीमत चुकाए
उफ़ भी ना कर सके
दहलीज भी पार कर ना सके 
ना इस दर को
ना उस दर को
अपना कह सके 
जब दुत्कारी जाये
जब जीवन उसका
नरक बन जाये
जब साथ रहना दूभर हो जाये
कहो तो .........ओ ठेकेदारों
किस दर पर जाए
कहाँ जाकर गुहार लगाये?

अब बदलना होगा 
ऐसी रस्मों को
समझना होगा
बेटी कोई वस्तु नहीं
जो दान दे दी जाये
बेटियां तो जान होती हैं
दो घरों की आन होती हैं
फिर कैसे कर देते हो 
कन्यादान के नाम पर दान
क्या कभी नहीं 
तुम्हारे अंतस ने 
ये सवाल उठाया ?
क्या कभी नहीं 
तुम्हारा जमीर जागा?
जिसे इतने नाजों से पाला पोसा
और एक ही पल में
उसे सारे हकों से 
महरूम कर दिया
ब्याह के बाद 
ना वो घर अपना बना
और ना मायका अपना रहा
दोनों ही घरों से
उसका हक़ तोड़ दिया
कन्यादान प्रथा ने 
समाज को अभिशापित किया
कन्या का जीवन दूभर किया
सब जानते हैं
अब उस घर से इसके 
सभी हक़ ख़त्म हुए
और मायके वाले भी
बाद में बोझ समझते हैं
फिर अत्याचारों का सिलसिला 
कहर ढाता है
कभी दहेज़ के नाम पर 
तो कभी लड़की जन्मने के नाम पर
उसी का शोषण किया जाता है
कभी  ज़िन्दा जलाया जाता है
तो कभी बच्चा जनते जनते ही
उसका दम निकल जाता है
बेटी को हर अधिकार से वंचित कर दिया
दान दी जाने वाली चीज  से
कोई हक़ ना रखना
इस प्रथा ने ही ऐसी 
कुरीतियाँ फैलाई हैं 
ज़रा सोचो
अगर ऐसा तुम्हारे साथ होने लगे
पुरुष का दान होने लगे
और किसी भी घर में
उसका कोई स्थान ना हो
कहीं कोई मान ना हो
अपनी कोई पहचान ना हो
कैसे तुम जी पाओगे?


ओ समाज के ठेकेदारों
जागो .........समझो
मत लकीर के फकीर बनो
जो रस्मे जज्बातों  से खेलती हों
जिनसे कोई सही शिक्षा ना मिलती हो
जो विकास में बाधक बनती हों
उन रस्मों को , उन परिपाटियों को 
बदलना बेहतर होगा
एक नए समाज का 
निर्माण करना होगा
कन्यादान की रस्म को 
बदलना होगा
लिंग भेद ना करना होगा
बल्कि कन्या को भी 
सम स्तर का समझना होगा
कन्यादान को अभिशाप ना बनने देना होगा

शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

आखिर कब तक कोई उधेडे और बुने स्वेटरों को ???

जब सारा पानी चुक जाये………कहीं ठहरने को जी चाहता है मगर्………कोई है जो भरमाता है ………असमंजस की सीमा पर खडा राह रोकता है ………ना जाने कौन आवाज़ लगाता है …………और चल पडता है फिर दिशाहीन सा आवाज़ की दिशा में ……………जो छलावे सी छल जाती है और फिर सफ़र एक मोड पर आकर फिर चुक जाता है …………ये अनवरत चलता सिलसिला………कहीं रेगिस्तान की जलकुंभी तो नहीं …………आखिर कब तक कोई उधेडे और बुने स्वेटरों को ???


हलक मे फ़ँस रहा है ………आँख से नही बहता ………वो खामोश पल ………गुमनाम अंधेरों की दहलीज पर ठिठकता तो है मगर ………सहूलियतों की रौशनियाँ रास नहीं आतीं ………मिटने की हसरत में जी उठता है और सलीब पर लटक जाता है …………इम्तिहान की बेजारियाँ और क्या होंगी???



सीमाहीन  दिशाहीन कतरे समेटने को जो हाथ बढे ………सारी रौशनियाँ गुल हो गयीं …………साज़िशों के दौर में वक्त बेज़ार मिला ………कंठहीन कोकिला के स्वरों पर पहरे मिले ………ना सुबह को रौशनी मिली ना सांझ को बाती मिली………बस दीमक ही सब चाटती रही …………खोखली दीवारों के पार मौसम नहीं बदला करते!!!

सोमवार, 12 नवंबर 2012

काश! प्रेम की आकृति होती

काश! प्रेम की आकृति होती
एक वायुमंड्ल होता उसका
और उसमें तैरते कुछ
नीले अन्तर्देशीय पत्र
कुछ पोस्टकार्ड होते
जिन पर कुछ ना लिखा होता
और तुमने हर हर्फ़
पढ लिया होता

सिसकने की जहाँ मनाही होती
अश्कों की खेती खूब लहलहाती
क्योंकि
जो कह दिया
शब्दों मे जिसे बाँध दिया
वो भला कब इश्क हुआ
और हमारी परिभाषा तो
वैसे भी चिन्तन से परे की
कोई अबूझ पहेली होती
जिसमें होने और ना होने के बीच की परिधि पर
ना तुम होते ना मैं होती
मगर फिर भी वहाँ………
इश्क होता……मोहब्बत होती
जीने को और क्या चाहिये
होना ना होना कब मायने रखता है
वैसे भी इश्क का मजमून तो यूँ भी कोई फ़कीर ही पढता है…जानते हो ना

बेजुबानों की अबोली भाषा मे छुपे गूढार्थ बूझने के लिये 
कोई शर्त नही होती इश्क की पाठशाला में
फिर प्रेम को आकार देना इतना आसाँ कहाँ ?
ऐसे मे कैसे कहूँ
काश! प्रेम की आकृति होती………

गुरुवार, 8 नवंबर 2012

निष्ठुर आशा का निर्णायक मोड़ होगा वो

निष्ठुर आशा का निर्णायक मोड़ होगा वो
जब भभकती चिताओं में ना शोर होगा वो
एक चील ने छीना होगा बाज के मुँह से निवाला
तब जरूर कोई नया उदबोध  होगा वो

यूँ ही नहीं बनती हैं शिलाएं वक्त की

यूँ ही नहीं गढ़ती हैं कहानियां शक्ल की
एक ज़र्रे ने जब किया होगा रोशन जहान
तीखी फिजा बदला मोजूं कुछ और होगा वो 

सिमटती कायनात की खुमारी होगी

एक जुनूनी आतिशी वो पारी होगी
जब किसी चाह की ना कोई जवाबदारी होगी
तब इंकलाबी लहर की तैयारी कुछ और होगी वो

टूटा पत्ता जब शाख से जुड़ जायेगा

रुत का नया रुख तब नज़र आएगा
यूँ ही नहीं आशियानों के ख्वाहिशमंद रहे
बदलते आसमाँ के तेवर कुछ और होंगे वो

फतवों की मीनारों पर ना बुर्ज होंगे

तालिबानी अमलों के ना हुजूम होंगे
हर आँख में जब एक कोहिनूर होगा
तब मंज़र बदलता एक सुनहरा दौर होगा वो

रविवार, 4 नवंबर 2012

मैं नीली हँसी नहीं हँसती

मैं नीली हँसी नहीं हँसती 
कहा था तुमने एक दिन 
बस उसी दिन से 
खोज रही हूँ ..............नीला समंदर 
नीला बादल , नीला सूरज 
नीला चाँद , नीला दिल 
हाँ ............नीला दिल 
जिसके चारों  तरफ बना हो 
तुम्हारा वायुमंडल सफ़ेद आभा लिए नहीं 
सफेदी निकाल  दी है मैंने 
अब अपने जीवन से 
चुन लिया है हर स्याह रंग 
जब से तुम्हारी चाहत की नीली 
चादर को ओढा है मैंने 
देखो तो सही 
लहू का रंग भी नीला हो गया है मेरा 
शिराएं भी सहम जाती हैं लाल रंग देखकर 
कितना जज़्ब किया है न मैंने रंग को 
बस नहीं मिली तो सिर्फ एक चीज 
जिसके तुम ख्वाहिशमंद थे 
कहा करते थे ............एक बार तो नीली हँसी हँस दो 
देखो नीले गुलाब मुझे बहुत पसंद हैं 
और मैं तब से खड़ी हूँ 
झील के मुहाने पर 
गुलाबों को उगाने के लिए 
नीली हँसी के गुलाब ..........
एक अरसा हुआ 
नीले गुलाब उगे ही नहीं 
लगता है 
तेरी चाहत के ताजमहल को बनाने के बाद 
खुद के हाथ खुद ही काटने होंगे 
क्यूंकि 
सुना है नील की खेती के बाद जमीन बंजर हो जाती है ..........

शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

अब रिवाजों की मोहताज नहीं रही हमारी मोहब्बत

मेहंदी लगे मेरे हाथ


पिया जी का है साथ 
 
 

रंग तो खिल कर रहेगा 

 उनके सामने उनकी शाप पर बैठकर 
मेहंदी लगवाने का मज़ा ही कुछ और है ……है ना :)


सुनो
कभी कभी सोचती हूँ
कितना वक्त हुआ
हमें साथ रहते
एक दूसरे  के साथ चलते
और अभी कितना सफ़र बाक़ी है
हम नहीं जानते
इस सफ़र में
कुछ यादें सुहानी रहीं
तो कुछ बेगानी
तो कुछ खट्टी
तो कुछ कडवी
और कुछ मीठी
तुम भी जानते हो
और मैं भी
आज आकलन करने बैठी
खोज रही थी
अपने अंतस्थल में
कितना पानी बचा है
क्या सच में
हमारी चाहत में कुछ इजाफा हुआ है
क्या आज भी उसमे
वैसा ही सौंदर्य समाया है
जैसा पहले होता था
तो पाया
कितना बदल चुके हैं
हमारे पैमाने
कितना बदल चुकी हैं
हमारी चाहतें
देखो न
पहले जैसी न तो उमंगें रहीं
न ही पहले जैसी चाहतें
फिर भी कहीं न कहीं
बचा हुआ है कुछ पानी
जिसमे हरा रंग घुल गया है
न मेरा रंग न तुम्हारा
बस वो बन गया है हमारा
तभी तो
देखो न
नहीं करती कोई तैयारी
पहले जैसी करवाचौथ पर
कैसे अल्हड लड़की सी
मेरी सारी  आकांक्षाएं
तुम्हारे इर्द -गिर्द घूमा करती थीं
और मैं
मेहंदी के रंग में
तो कभी सौंदर्य के पैमानों में
तुम्हारी मोहब्बत ढूँढा करती थी
बस तुम ही तुम हो
मेरे आस पास
मेरे ख्यालों में
मेरी हर चाहत को
परवान चढ़ा दो
बस इन्ही में डूबता -उतरता रहता था
मेरी मोहब्बत का चाँद
क्योंकि
तुम्हें भी तो
मेरा सजे -संवरे रहना पसंद था
और मैं भी
अपनी पूजा की थाली में
सिर्फ तुम्हारी मोहब्बत ही पूजा करती थी
मगर देखना
वक्त की पहरेदारी भी गज़ब है
कैसे बिना आवाज़ दिए
चौकीदारी के उसूल बदल दिए
अब ना सजने - सँवरने में
न मेहंदी के रंग में
न चाहतों की बुलंदियों पर
खोजती हूँ तुम्हारी मोहब्बत के चाँद को
फिर भी
मना लेती हूँ करवाचौथ
जानते हो क्यों
क्योंकि
अब मेरे चाँद ने करवट ले ली है
तभी तो देखो
तुम्हें फर्क ही नहीं पड़ता
मैं करवाचौथ पर
कोई तैयारी  करूँ या नहीं
तुम्हें फर्क ही नहीं पड़ता
मैं ढंग से तैयार होऊँ या नहीं
तुम्हारे नाम की मेहंदी लगाऊँ या नहीं
तुम्हारी पसंद की
लाल काँच की चूड़ियाँ पहनूं या नहीं
कितना फर्क आ गया है ना ..............
फिर भी लगता है
कुछ पानी बचा है अभी
दोनों के गुलदानों में
क्योंकि कहीं न कहीं
पहले से ज्यादा
आज हम में
हमारी मोहब्बत में
संजीदगी आयी  है
अब लेन देन से परे
झूठे दिखावटी रिवाजों से परे
बिना कहे सुने भी
एक दूसरे के लिए जीते हैं हम
फिक्रमंद होते हैं
एक दूजे के दर्द में
उसका ज़िन्दगी में
मौजूदगी का अहसास ही
काफी होता है अब
जीने के लिए
तभी तो देखो
मना ही लेते हैं हम भी करवाचौथ
बिना कोई रस्मो - रिवाज़ निभाए 
एक अन्दाज़ ये भी होता है ……क्योंकि
अब रिवाजों की मोहताज नहीं रही हमारी मोहब्बत .......है ना साजन !!!

बुधवार, 31 अक्तूबर 2012

तेरी हसरत, तेरी कसम मेरी जाँ लेकर जायेगी

मेरी नज़रों के स्पर्श से 
नापाक होती तेरी रूह को
करार कैसे दूँ 
बता यार मेरे 
तेरी इस चाहत को
"कोई होता जो तुझे तुझसे ज्यादा चाहता"
इस हसरत को 
परवाज़ कैसे दूँ

तुझे तुझसे ज्यादा 
चाहने की तेरी हसरत को
मुकाम तो दे दूँ मैं
मगर
तेरी रूह की बंदिशों से
खुद को 
आज़ाद कैसे करूँ यार मेरे
प्रेम के दस्तरखान पर
तेरी हसरतों के सज़दे में
खुद को भी मिटा डालूँ
मगर कहीं तेरी रूह
ना नापाक हो जाये
इस खौफ़ से 
दहशतज़दा हूँ मैं
अस्पृश्यता के खोल से 
तुझे कैसे निकालूँ
इक बार तो बता जा यार मेरे
फिर तुझे 
"तुझसे ज्यादा चाहने की हसरत" पर
मेरी मोहब्बत का पहरा होगा
तेरे हर पल 
हर सांस 
हर धडकन पर
मेरी चाहत का सवेरा होगा
और कोई 
तुझे तुझसे ज्यादा चाहता है 
इस बात पर गुमाँ होगा
बस एक बार कसम वापस ले ले
"अस्पृश्यता"  की
वादा करता हूँ
नज़र का स्पर्श भी
तेरे अह्सासों को
तेरी चाहत को
तेरी तमन्नाओं को
मुकाम दे देगा
तेरी रूह की बेचैनियों को
करार दे देगा
तेरे अन्तस मे 
तुझे तू नही
सिर्फ़ मेरा ही 
जमाल नज़र आयेगा
कुछ ऐसे नज़रों को
तेरी रूह में उतार दूँगा
और मोहब्बत को भी
ना नापाक करूँगा
मान जा प्यार मेरे
वरना
तेरी हसरत, तेरी कसम
मेरी जाँ लेकर जायेगी ……………

शनिवार, 27 अक्तूबर 2012

मेरे पैर नही भीगे ……………देखो तो !!!

मेरे पैर नही भीगे
देखो तो
उतरे थे हम दोनों ही
पानी के अथाह सागर में
सुनो………जानते हो ऐसा क्यों हुआ?

नहीं ना …………नहीं जान सकते तुम
क्योंकि
तुम्हें मिला मोहब्बत का अथाह सागर
तुम जो डूबे तो
आज तक नहीं उभरे
देखो कैसे अठखेलियाँ कर रही हैं
तुम्हारी ज़ुल्फ़ें
कैसे आँखों मे तुम्हारी
वक्त ठहर गया है
कैसे बिना नशा किये भी
तुम लडखडा रहे हो
मोहब्बत की सुरा पीकर
और देखो………इधर मुझे
उतरे तो दोनों साथ ही थे
उस अथाह पानी के सागर मे ………
मगर मुझे मिली ………रेत की दलदल
जिसमें धंसती तो गयी
मगर बाहर ना आ सकी
जो अपने पैरों पर मोहब्बत का आलता लगा पाती
और कह पाती ………
देखो मेरे पैर भी गीले हैं ……भीगना जानते हैं
हर पायल मे झंकार का होना जरूरी तो नहीं …………
सिमटने के लिये अन्तस का खोल ही काफ़ी है
सुना है
नक्काशीदार पाँव का चलन फिर से शुरु हो गया है
शायद तभी
मेरे पैर नही भीगे ……………देखो तो !!!

सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

इसलिये आखिरी नहान कर लिया है मैने



1)
देखो ना

आज जरूरत थी मुझे
चादर बदलने की
रंगों से परहेज़ जो हो गया है और तुम
इबादत के लिये माला ले आये
तुलसी की तुलसी के लिये
क्या अपना पाऊँगी मैं
तुम्हारे रंगों की ताब को
जो बिखरी पडी है
शीशम सी काली देह पर
जिसको जितना छीलोगे
उतनी स्याह होती जायेगी
यूँ भी ओस मे भीगे बिछोनों पर कशीदाकारी नही की जाती
फिर कैसे अल्हडता की डोरियों को साँस दोगे
जो हाँफ़ने से पहले एक ज़िरह कर सके
अब यही है तुम्हारी नियति शायद
उम्र भर का जागरण तो कोई भी कर ले
तुम्हें तो जागना है मेरी रुख्सती के बाद भी
पायलो को झंकार देने के लिये
घुंघरूओं का बजना सुना है शुभ होता है
.........

2)
आह! …………
कितनी बरसात होती रही
और चातक की ना प्यास बुझी
बस यही अधूरापन चाहिये मुझे
नही होना चाहती पूरा
जानते हो ना
पूर्णता की तिथि मेरी जन्मपत्री मे नही है
वैसे भी देह के आखिरी बीज पर
एक रिक्तता अंकित रहती है अगली उपज के लिये
फिर क्यों ट्टोलते हो खाली कनस्तरों मे इश्क के चश्मे
क्योंकि कुछ चश्मे ख्बाहिशों की रोशनाई के मोहताज़ नही होते
कभी डूबकर देखना भीगे ना मिलो तो कहना
पीठ पर मेरी उंगलियों की छाप मेरे होने का प्रमाण देगी
यहाँ प्यासों के शहर बारिशों के मोहताज़ नही होते............


3)
नमक वाला इश्क यूँ ही नही हुआ करता
एक कंघी, कुछ बाल और एक गुडिया तो चाहिये 

कम से कम  जिसकी तश्तरी मे
कुछ फ़ांक हों तरबूज़ की और कुछ फ़ांक हों मासूमियत की
डाल कर देखना कभी तेल सिर मे
आंसुओं के बालों मे तरी नही होगी, कोइ वट नही होगा
होगा तो बस सिर्फ़ और सिर्फ़ एक नमकीन अहसास
जो खूबसूरती का मोहताज़ नही होता ,
जो उसकी रंगत पर कसीदे नही पढता
बस इबादत करता है और ये जुनून यूँ ही नही चढता
इश्क की मेहराबदार सीढियाँ
देखा ना कितनी नमकीन होती हैं
दीवानगी की चिलम फ़ूँकना कभी मौसम बदलने से पहले


4)
इश्क की सांसों पर थिरकती हर महज़बीं
मीरा नही होती , राधा नही होती
और मैं आज भी खोज मे हूँ
उस नीले समन्दर मे खडे जहाज की
जिसका कोई नक्शा ही नहीं
सिर्फ़ लहरों की उथल पुथल ही पुल बन जाती है
धराशायी मोहब्बत के फ़ूलों की
जिसकी चादर पर पैर रख
कोई आतिश जमीन पर उतरे और खोल मेरा सिमट ले …………



5)

मोहब्बत के कोण
त्रिआयामी नही हुआ करते 

जिसे कोई गणित सुलझा ले
और नयी  प्रमेय बना दे

इसलिये आखिरी नहान कर लिया है मैने
अब मत कराना स्नान चिता पर रखने से पहले
............

बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

यूँ ही तो नहीं स्त्री को खुदा ने जननी का अधिकार दिया होगा

मिथक है 
स्त्री पुरुष होना
या एक सरंचना का उद्भव 
किसी कारण से होना
युगों से बांचते रहे हम
स्त्री पुरुष में अधिकार और कर्त्तव्य
मगर ना जान पाए उनके
समूचे अस्तित्व के आंकड़े
यूँ ही स्त्री नही हुआ जाता
उसके लिए सिर्फ 
समर्पण ही काफी नहीं था
किया था उसने उस वक्त 
कितना बड़ा त्याग
जब इन्द्र को हुआ था 
ब्रह्म हत्या का श्राप
कौन सा पुरुष आगे आया
उसकी ब्रह्म हत्या को 
चार भागों में था बांटा गया
उसमे से एक भाग
स्त्री को दिया गया
और उसने स्वीकार भी किया
क्यूँकि जानती थी वो
जनने की शक्ति से हो जाएगी आप्लावित
मस्तक उसका हो जायेगा गौरान्वित 
जो कार्य पुरुष नहीं कर पायेगा
स्त्री का मुख तेज की लालिमा से
उदीप्त हो जायेगा 
फिर कैसे पुरुष कर सकता है समानता 
किसी भी युग में ?
किसी भी काल में 
वरना तो स्त्री भी थी उतनी ही सशक्त
उतनी ही लोह हृदय 
जितना आज का पुरुष दिखता है
फिर चाहे वो होता नहीं लोह्पुरुष
सिर्फ अपने दंभ में चूर 
अपने मान के लिए
श्रेष्ठ साबित करने पर आमादा हो जाता है
नहीं जानता स्त्री का सच
यूँ ही स्त्री नहीं करती
त्याग और समर्पण
आज भी स्त्री है हर हाल में श्रेष्ठ
मगर उसने ना कभी जताया
जानती है .........जताने वाले कमजोर होते हैं 
हो हिम्मत तो एक बार
उसके आकार तक आकर देखो
उसकी ऊँचाइयों को छूकर देखो
गर कर पाओ ऐसा तब कहना
पुरुष है श्रेष्ठ ..............
शक्ति यूँ ही हर किसी में आप्लावित नहीं होती
सामर्थ्यवान  को ही ज्योतिपुंज सौंपा जाता है 
शक्तिमान भी शक्ति के बिना अधूरा माना जाता है 
फिर कहो पुरुष ! तुम हो कैसे स्त्री से श्रेष्ठ ?
कोई तो कारण रहा होगा ना 
यूँ ही तो नहीं स्त्री को खुदा ने जननी का अधिकार दिया होगा 

शनिवार, 13 अक्तूबर 2012

अधूरी हसरतों का ताजमहल

जो तफ़सील से सुन सके
जो तफ़सील से कह सकूँ
वो बात , वो फ़लसफ़ा
एक इल्तिज़ा, एक चाहत
एक ख्वाहिश, एक जुनून
चढाना चाहती थी परवान
ढूँढती थी वो चारमीनार
जिस पर लिख सकती वो इबारत
मगर बिना छत की दीवारों के घर नही हुआ करते
जान गयी थी ……तभी तो
खामोशी की कब्रगाह मे सुला दिया हर हसरत को
क्योंकि
दीवानगी की हद तक चाहने वाले ताजमहल के तलबगार नही होते
और मुझे तुम कभी मिले ही नही
तो किसे सुनाती दास्तान-ए-दिल
पास होकर भी दूरियों ने कैसी लक्ष्मण रेखा खींची है
सोचती हूँ ..........
एक मकबरा बनवा दूं
और उस पर लिखवा दूं
अधूरी हसरतों का ताजमहल ............है ना सनम !!!!!!!!!!

मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

ओ प्रदीप्तनयन!

वक्त के उस छोर पर खड़े तुम
और इस छोर पर खडी मैं
फिर भी एक रिश्ता तो जरूर है
कोई ना कोई कड़ी तो जरूर है
हमारे बीच यूँ ही तो नहीं 
संवादों का आदान प्रदान होता 
चाहे बीच में गहन अंधकार है
नहीं है कोई साधन देखने का
जानने का एक दूजे को
मगर फिर भी 
कोई तो सिरा है 
जो स्पंदन के सिरों को जोड़ता है
वरना यूँ ही थोड़े ही 
सूर्योदय के साथ 
मिलन की दुल्हन साज श्रृंगार किये
प्रतीक्षारत होती 
कभी अपनी चूड़ियों की खन खन से 
तो कभी पायल की रून झुन से
अपनी भावनाओं का आदान प्रदान करती
वैसे भी सुना है 
स्पंदन शब्दों के मोहताज नहीं होते
देखो तो ज़रा 
ना तुमने मुझे देखा 
ना जाना ना चाहा
मगर फिर भी एक डोर तो है 
हमारे बीच
यूँ ही थोड़े ही रोज 
कोई किसी का 
वक्त के दूसरे छोर पर खड़ा
इंतज़ार करता है
मैं तो ज़िन्दगी गुज़ार देती यूँ ही 
मगर वक्त की कुचालें कोई कब समझा है 
यूँ ही थोड़े ही वक्त का पहरा रहा है 
ये स्पंदनों के शाहकार भी अजीब  होते हैं
लफ़्ज़ों को बेमानी कर 
अपनी मर्ज़ी करते हैं
देखो तो 
वक्त अब डूबने को अग्रसर है
और तुम ना जाने
कौन से दूसरे ब्रह्माण्ड में चले गए हो
जो समय की सीमा से भी मुक्त हो गए हो
मगर मैं आज भी
इंतज़ार की बैसाखियों पर खडी
तुम्हारे नाम की 
हाँ हाँ नाम की ..........जानती हूँ
ना तुम्हारा कोई नाम है 
ना मेरा 
ना तुमने मुझे जाना है 
ना मैंने
फिर भी एक नाम दिया है तुम्हें मैंने…ओ प्रदीप्तनयन!
बस उसी नाम का दीप जलाए बैठी हूँ
ओह ! आह ! उम्र के सिरे कितने कमज़ोर निकले
स्पंदनों की सांसें भी थमने लगीं
शायद शब्दों का अलगाव रास नहीं आया 
तभी धुंध के उस पार सिमटा तुम्हारा वजूद
किसी स्पंदन का मोहताज ना रहा 
और मैं अपनी साँसों को छील रही हूँ
शायद कोई कतरा तो निकले 
जिसमे कोई स्पंदन तो बचा हो 
और इंतज़ार मुकम्मल हो जाए 
ये वक्त की कसौटी पर इंतज़ार की रूहों का सिसकना देखा है कभी ?
ए .........एक बार हाथ तो बढाओ
एक बार गले तो लगाओ
और दम निकल जाए 
फिर मुकम्मल ज़िन्दगी की चाह कौन करे ?

शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2012

वार्तालाप तुमसे या खुद से नही पता…………मगर

वार्तालाप तुमसे या खुद से नही पता…………मगर

आह ! और वक्त भी अपने होने पर रश्क करने लगेगा उस पल ………जानती हो ना मै असहजता मे सहज होता हूँ और तुम्हारे लि्ये लफ़्ज़ों की गिरह खोल देता हूँ बि्ल्कुल तु्म्हारी लहराती बलखाती चोटी की तरह …………बंधन ऐसा होना चाहिये जिसमे दोनो के लिये कुछ जगह बाकी हो क्योंकि मुझे पता है तुम उन्मुक्त पंछी हो मेरे ह्रदयाकाश की


स्पर्श की आर्द्रता के लिये जरूरी तो नही ना समीप होना ………देखो सिहरन की पगडंडी कैसे मेरे रोयों से खेल रही है और तुम्हारा नाम लिख रही है ………अमिट छाप मेरी असहजता मे तुम्हारे होकर ना होने की ………यूं कभी करवट नही बदली मैने ………आज भी खामोशी की दस्तक सुन रहा हूँ तुम्हारी धडकनों के सिरहाने पर बैठी मेरी अधूरी हसरत की………क्या तुमने उसे सहलाया है आज?

उम्र के रेगिस्तान मे मीलो फ़ैली रेत मे अक्स को ढूँढता कोई वजूद …………जहां ज़ब भी उम्र की झांझर झनकती है मेरी पोर पोर दुखती है तुम्हारी यादों की तलहटी मे दबी अपनी ही गहन परछाइयों से ………मुक्त नही होना मुझे , नही चाहिये मोक्ष …………इसीलिये स्वर का कम्पन कंपा देता है मेरी रूह की चिलम को……क्यों जरूरी नही हर कश मुकम्मल हो और उम्र गुज़र जाये


प्रेम को जोडना नही , वो जुडता नही है वो तो सिर्फ़ होता है और तुम हो इसलिये आवाज़ देती हूँ और कहती हूँ  .………आ जाओ बह जाओगे प्रेम के अथाह सागर मे जिसके किनारे नही होते , पतवार नही होती और ना ही कोई नाव होती …………बस बहते जाना ही नियति होती है ……क्या आ सकोगे उस छोर तक सीमित से असीमित होने तक्………अनन्त तक प्रवाहित होने के लिये ………बस मीठा होने के लिये इतना ही कर लो ………बह चलो मेरे संग मेरे आकाश तक

अब रेगिस्तान की रेत मे घरोंदे नही बनाना …………बस एक शाश्वत प्रश्रय स्थल तक पहुँचना है …जो अनन्त हो , असीम हो ………और उम्मीद है मिलेगा वो एक दिन

आन्दोलनों के लिये जरूरी तो नही वज़ूद का होना……………तो बन जाओ महादेव का हलाहल और बना लो मुझे विषकन्या ………काफ़ी है अदृश्य रेखा के विस्तार के लिये।