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शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

कहाँ हो तुम?

याद तो होगा तुम्हे
वो बरसात का मौसम
जिसमे भीगे थे
दोनो के तन मन
एक सुनसान सडक पर
लम्बा सफ़र था
दोनो का साथ था
और मौसम का भी
अपना अन्दाज़ था
खामोशी पसरी हुई थी
मगर बूँदो की आवाज़
मधुर धुन घोल रही थी
दिल की धडकनो के साथ
हर आवाज़ से अन्जान
जब तुमने अचानक कहा था
याद तो होगा ना………
कैसे मौसम वही ठिठक गया था
आसमाँ से उतरती बूँदोँ की लडियों
ने जैसे कोई शामियाना बनाया था
और वक्त तो जैसे आज भी
वही उस भीगे मौसम मे भीग रहा है
और तुमने कहा था
आज तक किसी ने किसी को
इस तरह ना कहा होगा
ए बूंदों तुम गवाह रहना
मेरी इस बात की
लो आज मै इस बरसात को
साक्षी बना कहता हूँ
मैने दिल तुम्हे दे दिया
क्या रख सकोगी संभाल कर………जानाँ
और देखो तुम्हारी जानाँ
उसी सुनसान राह पर
तुम्हारे दिल को संभाले
आज भी वैसे ही
बारिश मे भीग रही हूँ
ए ………बताओ ना
कहाँ हो तुम?

मंगलवार, 26 जुलाई 2011

ये तो हद हो गयी………अब टी वी पर भी आ गये

दोस्तों
कल एन डी टी वी पर प्रसारित एक कार्यक्रम जिसमे सोशल मिडिया के प्रभाव के बारे मे बोलना था …………अपने विचार व्यक्त करने थे उसमे मैने , राजीव तनेजा जी और संजू तनेजा जी ने भाग लिया था ………देखिये उसकी विडियो


अगर ओरिजिनल देखना है तो यू ट्यूब का ये लिंक क्लिक करके देख सकते हैं
http://www.youtube.com/watch?v​=_X7bGGIFn3k
 
 ये विडियो तो हमने मोबाइल से लिया है मगर ऊपर सीधा और साफ़ प्रसारण देख सकते हैं




रविवार, 24 जुलाई 2011

बहुत दिन हुये तुमने कुछ कहा नही

बहुत दिन हुये
तुमने कुछ कहा नही
तुम कुछ कहते क्यों नही
देखो ना सारे पन्ने कोरे पडे हैं
बताओ अब इनमे
कौन सी ताबीर लिखूँ
तुम्हारा ना दर्द है अब मेरे पास
और ना ही कोई सुबह
जिसमे तुमने कुछ
ख्वाब बोये हों
बताओ ना क्या लिखूँ
ज़िन्दगी के हर पन्ने पर
सिर्फ़ तुम्हारे ही तो
रंग उकेरती हूँ
तुम जानते हो
और जब तुम कुछ नही कहते
तो सोचो ना
कितनी बेरंग हो जाती हूँ
मै और मेरे पन्ने
क्या तुम कभी
पढना चाहोगे बेरंग पन्नों को
मेरे जाने के बाद
कैसे उनमे मुझे ढूँढोगे
कैसे उनमे से अपने प्रेम की
चिलमन उठाओगे
और दीदार करोगे इन्द्रधनुष का
जिसमे बरसात के बाद
सुनहरी धूप खिली होगी
और उनमे तुम्हारा अक्स
चस्पां होगा
बताओ ना कैसे तुम
खुद का दीदार मेरी
आंखो से करोगे
तुम्हे कुछ तो कहना ही होगा
मेरे लिये ना सही
कम से कम अपने लिये तो कहो
यही तो अनमोल सौगात
तुम्हे देने के लिये
लिख रही हूँ
शायद कभी तुम पढो
और उनमे कभी खुद को
और कभी मुझे देखो
और लफ़्ज़ों मे मुझे
छूने की , महसूसने की
कोशिश करो
देखना उस पल
तुम्हारी आँखों से ट्पकते
आँसू पन्ने मे जज़्ब नही होंगे
उन्हे मै पी रही होंगी
और तुम्हारा गम जी रही होंगी

जानते हो ………
मोहब्बत का इक ताजमहल

ऐसे भी बनाया जाता है…………

मंगलवार, 19 जुलाई 2011

अखंड समाधियाँ यूँ ही नहीं लगा करतीं

एक मुद्दत हुई
ज़माने से मिले
कब से मन के तिलिस्म में
कैद कर लिया वजूद को
मन पंछी ने उड़ना भी छोड़ दिया
अब तो शायद पंख भी झड़ चुके हैं
वक्त की दीमक सब चाट चुकी है
बाहर का शोर भी बाहर ही रह जाता है
जैसे किसी  साऊंड प्रूफ घर में
कोई अजनबी सारी मिलकियत दबाये
अपनी हसरतों  के साथ रह रहा हो
कोई दरवाज़ा खटखटाए तो भी
अन्दर आवाज़ नहीं आती
आवाज़भेदी दरवाज़ों के साथ
प्रतिबिम्बरोधी दीवारें मन
के तिलिस्म की मजबूत
मीनारें बनी हैं
अब तो चाहकर भी उड़ ना पायेगा
जहाँ हवा का भी प्रवेश वर्जित  हो
वहाँ उड़ान कैसे संभव हो
मगर पता नही क्यों
आज इस तिलिस्म में दफ़न वजूद
बाहर की दुनिया का
तसव्वुर करने को बेचैन हो गया
लेकिन डरता है
कोई उसे जान सकेगा?
पहचान पायेगा ?
एक मुद्दत हुई ज़माने की
आहटों को सुने
और जैसे ही अपनी चाहत को
मन ने असलियत का जामा पहनाया
और मन को ज़माने की
धारा में प्रवाहित किया
कैसा विकल हुआ
यहाँ तो कोई चेहरा
कोई राहगीर
कोई नक्श ना अपना हुआ
हर तरफ , हर दीवार पर सिर्फ
एक नो एंट्री का बोर्ड दिखा
तो क्या सभी ने अपने
मनो में एक तिलिस्म बनाया है
और ज़माने के दस्तूर को भांप
मन ने वापस अपनी खोह में
आसान जमाया
समाधि से कभी ना वापस आने के लिए
आखिर अखंड समाधियाँ यूँ ही नहीं लगा करतीं

शनिवार, 16 जुलाई 2011

ज़रा खबर की खबर भी ले जाये

खबर खबर बन के रह गयी
ये खबर को भी खबर ना हुई
जब निकला खबर का जनाज़ा
खबर की भी खबर बन गयी
तब तक जब तक कोई नयी सनसनीखेज खबर और नही आ जाती बस तभी तक असर रहना है ………जनता को आदत पड चुकी है ये सब देखने की और ऐसे ही जीने की…………जनता ने भी बापू के बन्दरों की तरह बुरा देखना, बुरा बोलना और बुरा सुनना बन्द कर दिया है…………तो बस खबर है अगली खबर तक ही है इसका जीवन
 
हम सब अब खबरो के आदी हो चुके हैं…एक से जल्दी बोर हो जाते हैं इसलिये रोज एक नयी खबर का तो इंतज़ार कर सकते हैं मगर करने के नाम पर सिर्फ़ कोस सकते हैं और जब अपनी बारी आये तो अपने घर परिवार का वास्ता देकर पतली गली से निकल जाते हैं ……जब हम बहाने बनाना जानते हैं तो फिर सरकार के पास तो पूरा अख्तियार है और बहाना बनाना वैसे भी उसकी फ़ितरत है………तो क्या हुआ अगर वो रोज एक नया बहाना गढ लेती है कभी सबूतों के नाम पर तो कभी दबाव के नाम पर तो कभी डर के नाम पर्…..........और ये भी बस खबर बन कर ही रह जाएगी हमेशा की तरह........बैठकें की जाएँगी , समितियां गठित की जाएँगी, दूसरे मुल्क पर इलज़ाम लगाये जायेंगे और अपनी कमी को ना देख दूसरों के सिर घड़ा फोड़ा जायेगा , शहीदों को श्रद्दांजलि दी जाएगी और कुछ लाख का मुआवजा उसके बाद किसी आतंकवादी को यदि गलती से पकड़ भी लिया तो उसे मेहमान बनाकर रखा जायेगा ...........आखिर इस देश की परंपरा रही है ........अतिथि देवो भवः ...........अब बेचारी सरकार ये सब तो करेगी ही ना आखिर कुर्सी का सवाल है ......कहीं गलती से छिन गयी तो अबकी बार दोबारा मिले ना मिले ...........तो अच्छा है ना अतिथि का खास ख्याल रखा जाये कुछ जनता मरती है तो क्या हुआ ..........जनता वैसे भी इतनी बढ़ चुकी है इसी तरह तो कम होगी .........सरकार को सारे उपाय पता हैं ..........मिडिया अपना काम कर रहा है ........ख़बरों के पीछे दौड़ रहा है जब तक कोई दूसरी खबर नहीं आती और जनता हमेशा की तरह हाय हाय चिल्ला कर दो दिन में चुप बैठ जानी है ............तो क्या कहेंगे इसे एक खबर ही ना........इससे ज्यादा अगर हो तो बेचारी खबर को भी शर्म आ जाये .........खबर का जीवन दो दिन का............एक ने आना है तो दूसरी ने जाना ही है............अब तो यही कहेंगे

खबर को खबर ने बेखबर कर दिया
और खबर का जूनून खबर में सिमट गया

शनिवार, 9 जुलाई 2011

बेनाम दहलीजों को कब नाम मिले हैं .............

चलो अच्छा हुआ
अब दहलीज को
लांघकर निकल
जाते हैं लोग
वरना आस के पंख
कब तक इंतजार की
धडकनें गिनते
यूँ भी अब कहाँ
लोग बनाते हैं
दहलीज घरों में
ये तो कुछ
वक्त के निशाँ हैं
जिन्हें दहलीजें
समेटे बैठी हैं
वरना दहलीजें तो
अब सिर्फ उम्र की
हुआ करती हैं
रिश्तों की नहीं ...........
शायद तभी
रिश्तों की दहलीज
लाँघ गए तुम ............
बेनाम दहलीजों को कब नाम मिले हैं .............

गुरुवार, 7 जुलाई 2011

तभी आज इतने वर्षों बाद यादों ने दस्तक दी है


पूरा चाँद था उस दिन
जिस दिन हम मिले थे
याद है ना तुम्हें
और आसमाँ में आषाढ़ की
काली कजरारी बदली छाई थी
जिसने चाँद को
अपने आगोश में
धीरे धीरे समेट लिया था
और चाँद भी
बेफिक्र सा उसके
आगोश में सो गया था
जाने कब की थकान थी
जो एक ही रात में
उतार देना चाहता था
और उस सारी रात
हमने भी एक सफ़र
तय किया था
दिलों से दिलों तक का
रूह से रूह तक का
जहाँ जिस्म से परे
सिर्फ आँखें  ही बोल रही थीं
और शब्द खामोश थे
पता नहीं क्या था उस रात में
ना बात हुई ना वादा हुआ
मगर फिर भी कुछ था ऐसा
कि जिसने मुझे आज तक
तुमसे जोड़ा हुआ है
शायद .........तुम भूल गए हों
मगर वो प्लेटफ़ॉर्म पर
सुबह के इंतज़ार में
गुजरती रात आज भी
मेरे वजूद में ज़िन्दा है
सुबह तो सिर्फ जिस्म
वापस आया था
रूह तो वहीँ तुम्हारी
खामोश आँखों में ठहर गयी थी
कभी कभी अहसास
शब्दों के मोहताज़ नहीं होते
और कम से कम
पहली और आखिरी मुलाक़ात
तो उम्र भर की जमा पूँजी होती है
शायद कहीं तुम भी आज
उस मुलाकात को याद कर रहे होंगे
तभी आज इतने वर्षों बाद
यादों ने दस्तक दी है


उन आषाढी बूंदों में आज भी भीग रही है हमारी मोहब्बत 
इंतज़ार बनकर 

सोमवार, 4 जुलाई 2011

क्यूँ इतना शोर मचाया है

हमको ना इतना समझ ये आया है
चवन्नी की विदाई का क्यूँ
इतना शोर मचाया है
ये तो दुनिया की रीत है
आने वाला कभी तो जायेगा
फिर ऐसा क्या माजरा हुआ
जैसे किसी आशिक का जनाजा हुआ
शोर ऐसे मचा रहे जैसे
चवन्नी को दिल से लगाकर रखते थे
किसी से पूछो तो सही
चवन्नी का इक सिक्का भी
पास नहीं होगा मगर
चवन्नी चवन्नी गाकर
शोर ऐसे मचाया है जैसे
किसी पूंजीपति ने सारी
पूँजी को इक दिन में गंवाया है
वक्त के साथ हर हवा बदलती है
चवन्नी का वक्त पूरा हुआ तो
इसमें कौन सी नयी रीत बनती है
कोई लेख तो कोई कविता लिख रहा है
जिस चवन्नी को ज़िन्दगी भर ना पूछा
आज उसके लिए दहाड़ें मार रहा है
अरे क्यों मायूस होता है प्यारे
ये तो जग की पुरानी रीत है
आये है सो जायेंगे राजा रंक फकीर
इसमें चवन्नी चली गयी तो
कौन सी बदल गयी तेरी तकदीर
नही मानते तो ऐसा करो
अब चवन्नी की आत्मा की शांति
के लिए हवन पूजन करवाओ
१३ दिन का कम से कम शोक मनाओ
आखिर तुम्हारी जान से प्यारी थी
चाहे आज काम नही आती थी
पर थी तो कभी बडे काम की
अब यही दोहराओगे………
इसलिये प्यारों ……चवन्नी के आशिकों
उसके गम मे कम से कम
एक मज़ार तो बनवाओ
देख चवन्नी को फ़क्र होगा
अपने आशिकों को दुआ देगी
और कभी कभी तुम्हें
स्वप्न मे दर्शन देगी

शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

विशालता के पैमाने नही होते

दे्खा है ना
दग्ध सूरज
रोज आस्माँ
के सीने को
जलाता है
अपनी आग
अपना आक्रोश
सब उँडेल देता है
मगर आस्माँ
आज भी वहीं
स्थिर अविचल
समाधिस्थ सा
ध्यानमग्न ख़डा है
जानता है ना
दर्द जब हद से गुजर जाये
तो दवा बन जाता है
और देखो ना
आस्माँ ने उसकी ज्वाला को
अपने मे समाहित कर
उसे सुकून और स्वंय को
कितना विस्तृत किया है
या विशालता और महानता को
किसी कसौटी की जरूरत नही होती
तभी हर दर्द को समाने का हुनर आता है
शायद तभी  विशालता के पैमाने नही होते